शिक्षा बनाम शिक्षित Education vs educated- नीरज कुमार वर्मा की कलम से - तहक़ीकात समाचार

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शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

शिक्षा बनाम शिक्षित Education vs educated- नीरज कुमार वर्मा की कलम से

नीरज कुमार वर्मा " नीरप्रिय" 
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र. 
     
शिक्षा को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न तरीके से परिभाषित करने का प्रयास किया है। शिक्षा वह होती है जो मनुष्य के व्यक्तित्व में परिवर्तन कर दे। ज्ञान एक निरंतर प्राप्त करने वाली प्रक्रिया है जिस प्रकार से कोई अंतिम सत्य नहीं होता है उसी तरह कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता है। शिक्षा का मकसद मनुष्य के मस्तिष्क को चिंतनशील, तर्कशील व विवेकवान बनाना है। आधुनिक भारत में जब विश्वविद्यालय स्थापित किये गये तो उनका उद्देश्य भी यही था। अपने उद्देश्य की पूर्ति में ये विश्वविद्यालय शुरुआत में तो कुछ सफल हुए पर आजकल सफलता का यह आंकड़ा लगातार गिरता जा रहा है। 
भारत में शिक्षा की शुरुआत वैदिक काल से मानी जाती है उस समय गुरुकुल की प्रथा थी जहाँ पर विद्यार्थी गुरु के समीप रहकर ज्ञान प्राप्त करता था। यहाँ पर जो शिष्य रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे वे प्रायः भिक्षाटन करके अपनी जीविका चलाते थे। ज्ञान के नाम पर उन्हें विभिन्न प्रकार के धर्म, पुराणो, वैदिक साहित्य आदि का ज्ञान प्रदान प्रदान किया जाता था। इस समय की शिक्षा में लैंगिक और जातीय भेदभाव की परंपरा थी। शिक्षा के नाम पर एकाधिकारवाद व अधिनायकवाद की प्रणाली कायम थी। निम्न वर्ण तथा स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया था। इस समय जो पाठ्यक्रम होते थे वे विभेदकारी थे। खैर जो भी रहा हो पर उस युग की शिक्षा प्रणाली में भावों के विकास पर अधिक बल दिया गया था। मनुष्य शिक्षा जब शिक्षा प्राप्त करता था तो संवेदना की भावना बलवती हो जाती थी। वाल्मीकि जैसे ऋषि ने क्रौच नामक पक्षी का एक बहेली के हाथ से बध देखा तो उनके मन में करुणा की भावना का ऐसा संचार हुआ कि उन्होंने रामायण नामक महाकाव्य की रचना कर डाली। पर जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया वैसै वैसे शिक्षा के विषय वस्तु और उद्देश्य में भी परिवर्तन होते गये है। धर्मशास्त्र और सामंतवाद पर आधारित शिक्षा के विरुद्ध जब पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति हुई तो आस्था, अंधविश्वास और परंपरा के बजाय तर्क और विवेक पर आधारित वैज्ञानिक शिक्षा की आवश्यकता महसूस की गई। 

  स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय गणतंत्र के कल्याणकारी राज्य के अन्तर्गत राष्ट्र के निर्माण के लिए गुरुकुल तथा मदरसा प्रणाली के शिक्षा के बजाय आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा की प्रणाली को अपनाया गया। इन पाठशालाओं में क्रमशः ब्राह्मणों और मौलवियों का नियंत्रण होता था वह समाप्त हो गया तथा शिक्षा का द्वार सभी के लिए खुल गया। यदि इसे व्यापक रुप से देखा जाय तो यह व्यवस्था भारत में ही नहीं बल्कि विश्वस्तर पर भी थी। इस बात के साक्ष्य मिलते है कि यूनान में प्लेटो की एकेडमी की स्थापना के पहले अमीर लोग अपने बच्चों की शिक्षा की निजी व्यवस्था करते थे। प्लेटो की एकेडमी पहला सार्वजनिक शिक्षा संस्थान है। प्लेटो के ग्रंथ रिपब्लिक में शिक्षा पर इतना अधिक बल दिया गया है कि जनसंप्रभुता सिद्धांत के प्रवर्तक रुसो ने उसे शिक्षा पर लिखा सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है। प्लेटो का मानना था कि शिक्षा का काम विद्यार्थी को बाहर से ज्ञान देना नहीं है अपितु उसका मस्तिष्क स्वयं गतिशील होता है। उनका कहना था कि शिक्षा का काम सिर्फ प्रकाश दिखाना है यानी मस्तिष्क की गतिशीलता के लिए परिवेश प्रदान करना। 

जहाँ तक आधुनिक शिक्षा के बुनियाद रखने की बात है तो हम निःसंकोच कह सकते है कि यह पनीत कार्य ईसाई धर्म प्रचारकों व व्यापरियों ने की। उन्होंने सबसे पहले मद्रास आदि प्रेसिडिंसों  में विद्यालय स्थापित किये। धीरे-धीरे इनका विस्तार बंगाल व अन्य प्रांतों में हुआ। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, विज्ञान व साहित्य आदि विषयों का अध्ययन अध्यापन होता था। लार्ड मैकाले और राजा राम मोहन राय ने शिक्षा के आधुनिकीकरण में योगदान दिया। यधिप मैकाले ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा को बढ़ावा दिया जिसका मकसद सिर्फ़ क्लर्क तैयार करना था। इनका मकसद जो भी रहा हो पर यदि इसे दूसरे नजरिए से देखा जाए तो इन्होंने शिक्षा को बढ़ावा दिया साथ ही साथ पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान के सिखने पर बल दिया। 

भारत की बात करें तो आज भारतीय संविधान के द्वारा शिक्षा का अधिकार सभी वर्गों को प्रदान कर दिया गया है। शिक्षा को मौलिक अधिकार में समाहित कर दिया गया है तथा छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है। ऐसे जनोपयोगी कदम उठाना निःसंदेह प्रशंसनीय और शुभ है आज इसी का परिणाम है कि आजादी के समय जो साक्षारता दर 18 प्रतिशत थी वह आज बढ़कर 74ं.04 प्रतिशत हो गई है जिनमें महिला साक्षरता दर 65.46 प्रतिशत व पुरुष साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत है। यदि इसी अनुपात में यह दर बढ़ता रहा तो आने वाले दो तीन दशक में भारत की साक्षरता दर शत प्रतिशत तक हो जायेगी। यह सही है कि आज हमारे देश का भविष्य उज्जवल है। पर यदि इसे दूसरे नजरिये से देखा जाय तो आज की शिक्षा जिस प्रकार सूचना परक और तथ्यपरक होने लगी है वह घातक सिद्ध हो सकता है। आज भारत में मानविकी विषयों की उपेक्षा करके सिर्फ तकनीकी विषयों पर बल दिया जा रहा है जिसका सिर्फ एक ही मकसद होता है कि इन विषयों का अध्ययन करके येन-केन-प्रकारेण जल्द नौकरी मिल जायेगी और हम भी इस विलासी दुनिया में जीवन यापन करने में सक्षम होंगे तथा ऐशो आराम से जिंदगी गुजर जायेगी। यह केवल उस विद्यार्थी की ही सोच नहीं है बल्कि हमारा समाज भी इसे करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है क्योंकि उसके नजरिये में वही बौद्धिक और श्रेष्ठ माना जाता है जो अधिक से अधिक अर्थ संचित कर ले स्रोत चाहे नैतिक हो या अनैतिक तथा दिखावे पन का जीवन जीने में सक्षम हो। साथ ही साथ अब विश्वविद्यालय चिंतन मनन एवं शोध अन्वेषण का केन्द्र न होकर कुशल कारीगर पैदा करने वाले कारखाने बन गये है। वर्तमान पूंजीवादी युग में ऐसे पाठ्यक्रम बनाये जा रहे है जो चिंतनशीलता को बढ़ाने के बजाय कुंद मानसिकता बढ़ा रहे है। उनका एक प्रकार से मशीनीकरण कर दिया जा रहा है जहाँ पर उनके सोचने समझने की क्षमता जिसे सामान्य शब्दों में शिक्षित कहा जाता है समाप्त होती जा रही है। यही कारण है कि हमारे देश में जो सर्वोत्तम सेवाएं है जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) आदि जोकि श्रेष्ठ बौद्धिक माने जाते हैं कभी-कभी समुचित निर्णय लेने में ऐसी गलतियां कर देते हैं जिसे एक अदने आदमी से भी नहीं उम्मीद की जा सकती है। इन सबके के पीछे वे खुद जिम्मेदार नहीं है बल्कि वह पाठ्यक्रम है जो तथ्यों एवं निष्कर्षों पर आधारित होता है  जहाँ वर्णन, विश्लेषण व विवेचन की क्षमता पर कम ध्यान दिया जा रहा है। 

 अमेरिकी अपनी शिक्षा पद्धति का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं - "यह शिक्षा बहरा बनाने की प्रक्रिया है" कुछ ऐसे ही वाकिये भारतीय शिक्षा प्रणाली में भी देखने को मिल रहे हैं। वर्तमान कम्प्यूटर युग में जो शिक्षा प्रदान की जा रही है वह तर्क प्रधान और वैज्ञानिक तो हुई है पर इसमें कई विसंगतियां भी उभर करके सामने आ रही है। आज के समय में देखा जाय तो एक शिक्षित व्यक्ति अपने परिवार, समाज आदि से कटता जा रहा है। यह शिक्षा उसे समाज से जोड़ने के बजाय समाज से दूर रहना सिखा रही है। मनुष्य व्यक्तिवादी और उपभोक्तावादी होता जा रहा है जो परिवार, समाज के लिए त्याग, समर्पण और जिम्मेदारी की भावना थी उसका ह्रास होता जा रहा है। मनुष्य में व्यक्तिवाद इतना हावी होता जा रहा है कि कभी-कभी वह अकेले पन का शिकार हो जा रहा है जिसका परिणाम आत्महत्या, पागलपन, मानसिक बीमारी आदि निकलकर सामने आ रहा है। क्या कारण है कि पहले एक पढ़ा लिखा व्यक्ति समाज का आदर्श हुआ करता था? समाज उसकी बातों को तरजीह देता था पर आज ऐसा कम देखने को मिल रहा है। 

  बहरा बनाने की जो प्रक्रिया है उसी का नाम शिक्षा है यह सही प्रतीत हो रहा है। मनुष्य के संवेगों का विकास आज के समय में नहीं हो पा रहा है। सिर्फ़ तर्क, ज्ञान और विज्ञान से समाज नहीं चलता है। संवेग जैसे प्रेम, करुणा, श्रद्धा, भक्ति आदि वे मूलभूत भावनाएँ है  जो मानव जीवन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए आवश्यक होती है। आज की इस शिक्षा पद्धति जो साक्षरता का प्रतिशत तो बढ़ा रही है पर शिक्षित समाज का इजाफा नहीं हो पा रहा है कि विसंगतियों का संज्ञान भारत सरकार और भारतीय समाज को बखूबी हो रहा है। यही कारण है कि अब विभिन्न तकनीकी विश्वविद्यालयों व कालेजों में विज्ञान, गणित, तकनीक के साथ साथ साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात चल रही है। विज्ञान और तकनीक पर अधिक बल देने के जहां पर कुछ सार्थक परिणाम निकले वहीं पर कुछ नकारात्मक परिणाम भी सामने आए। साहित्य समाज का दर्पण होता है। भारतीय समाज में परिवार, जाति, समुदाय, संस्कृति, भाषा बोली, रहन-सहन आदि को समझने तथा विभिन्न प्रकार के संवेगों के विकास के लिए साहित्य का अध्ययन करना अति आवश्यक है। साहित्य  हमे सिर्फ यहीं तक सीमित नही करता है बल्कि यह हमें विषम परिस्थितियों में जीवन जीने की प्रेरणा व उर्जा भी प्रदान करता है। ऐसे मे हम कह सकते कि आदमी तभी शिक्षित कहलायेगा जब उसके ज्ञानात्मक और संवेगात्मक दोनो पहलुओं का संतुलित विकास हो। हम कितने भी ज्ञानी हो जाए, यदि हम दूसरो की भावनाओं का कद्र करना नहीं सीख पाये तो सारा ज्ञान व्यर्थ है क्योंकि कभी मनु भी ज्ञानी था पर ज्ञान से  संतुष्टि कहाँ मिली? उसे संतुष्टि तब मिली जब प्रेम, करुणा आदि मानवीय भावनाओं का संचार करने वाली देवी श्रद्धा मिली-----
दया, माया, ममता लो आज, मधुरिमा लो अगाध विश्वास। हमारा ह्रदय रत्ननिधी स्वच्छ, तुम्हारे लिए खुला है पाश।। 
ऐसे में मानव जीवन का संपूर्ण विकास सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों के संतुलित ज्ञान पर निर्भर करता है। शिक्षा के प्रतिशत बढ़ाने के साथ-साथ हमें शिक्षित नागरिक बनाने पर भी जोर देना होगा। 

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