वर्तमान मीडिया :जनसरोकारिता का अभाव Current Media: Lack of public health - तहक़ीकात समाचार

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मंगलवार, 2 मार्च 2021

वर्तमान मीडिया :जनसरोकारिता का अभाव Current Media: Lack of public health

नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय 
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र. 
9 670949399

मीडिया के सरोकारों की यदि बात की जाय तो इसका दायरा काफी विस्तृत होता है। इसके संदर्भ में यह बात कही जाती है कि धरती के ऊपर और आसमान के नीचे जो कुछ भी विघमान है उन सबसे इसका सरोकार है। मीडिया के सरोकारिता के विषय में समझने के लिए सबसे पहले मीडिया के उद्देश्य के विषय में थोड़ी बहुत चर्चा कर लेना आवश्यक जान पड़ता है। यदि हम मीडिया के उद्देश्य के विषय में जान लेंगे तो हमें उसकी सरोकारिता के विषय में समझने की सहूलियत होगी। मीडिया का प्रमुख उद्देश्य सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन प्रदान करना है। 
  जब हम बात करते है कि मीडिया का मकसद सूचना देना है तो इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि हम निर्लिप्त भाव से सूचनाओं को परोस दे। जो भी सूचनाएं हम आम जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करते है वे परिस्थिति और समाज निरपेक्ष नहीं होती है। केवल जानकारियों को परोस देना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है बल्कि ये सूचनाएं किसके लिए और किस उद्देश प्रस्तुत की जा रही है ये मायने रखती है। सूचनाओं को इकट्ठा करना जितना मेहनत है उससे कहीं अधिक परिश्रम उसको कायदे से आमजनमानस तक वितरित करने  में है। कभी-कभी ऐसा होता है कि हम कुछ सूचनाएं जो समाज से प्राप्त करते है उसे उसी रूप प्रस्तुत नहीं कर सकते है और कभी कभी तो हम सूचनाओं को किसी भी रूप में नहीं प्रस्तुत कर पाते है। सचमुच केवल सूचनाओ को इकट्ठा करना ही बहादुरी नहीं है बल्कि उसे परोसने के तौर तरीके भी आने चाहिए। ऐसे में जब मीडिया इसका पालन नहीं करता है या किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर सूचनाएं प्रदान करता है तो उस पर जनसरोकारिता का आरोप लगना स्वभाविक हो जाता है। 

   मीडिया का दूसरा मकसद शिक्षित करना होता है। यह समाज के लिए एक पथ प्रदर्शक की भूमिका अदा करता है। भारतीय समाज को यदि देखा जाय तो यहाँ पर अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास, चमत्कार, जादू टोना आदि का बोलबाला है ऐसे में मीडिया का दायित्व यह बढ़ जाता है कि वह समाज में वैज्ञानिक चिंतन, जागरूकता, तर्कशीलता, विवेकशीलता आदि का विकास करें। मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे कंटेंट प्रस्तुत करे जिससे मानव मस्तिष्क चिंतन करने के लिए विवश हो। यदि ऐसा करने के बजाय वह ऐसे सामग्री प्रस्तुत कर रहा है जिससे समाज में अंधविश्वास या चमत्कार को बढ़ावा मिलता है तो यह कहा जा सकता है कि मीडिया न केवल जनसरोकारिता की उपेक्षा कर रहा है बल्कि उसके विरुद्ध भी कार्य कर रहा है। मुकेश कुमार ने अपनी पुस्तक 'कसौटी पर मीडिया' में लिखा है - 'रहस्य, रोमांच से भरी घटनाओं के प्रति दिलचस्पी हमारी आदिम प्रवृत्ति का हिस्सा है। जीवन की अज्ञात गुफाओं में घुसकर उनको जानने की जिज्ञासा एक स्वाभाविक चीज है। मगर इसके एक वैज्ञानिक समाधान के बजाय उसे अज्ञानता और अंधविश्वास के आवरणों में ढके रखना किसी सामाजिक अपराध से कम नहीँ है। 

 आजकल देखा जा रहा है कि मनोरंजन के जो परंपरागत साधन थे वे लुप्त हो गये है। पर मनोरंजन समाज कि एक अपरिहार्य आवश्यकताओं में से एक है। मनोरंजन प्रदान करने का यह दायित्व मीडिया ने अपने कंधे पर ले लिया है। समाज को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करना मीडिया का तीसरा दायित्व माना जाता है। मीडिया से इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह समाज को स्वस्थ मनोरंजन के माध्यम से एक समुचित दिशा प्रदान करे। पर वर्तमानकाल में यह देखा जा रहा है कि मनोरंजन के नाम पर इस युवा पीढ़ी के समक्ष मीडिया के द्वारा फूहड़ सामग्री परोसी जा रही है इसका परिणाम यह निकलकर आ रहा है कि समाज में उच्छृखलता बढ़ती जा रही है। वर्तमान समाज विभिन्न प्रकार के विकारों से ग्रसित होता जा रहा है। मीडिया के इस भूमिका से समाज संतुष्ट होने के बजाय क्षुब्ध होता जा रहा है। ऐसे मे हम कह सकते हैं कि एक जनपक्षधर मीडिया के लिए यह आवश्यक होता है कि वह इन तीनों दायित्वों का निर्वाहन समुचित रूप से करे। यदि उसे ऐसा करने में कोई अड़चन आ रही है तो उसे संघर्ष करना चाहिए पर इसका अभाव दिख रहा है। 

वर्तमान समय में मीडिया के प्रति यह शिकायते सामान्य सी हो गई है कि मीडिया में जनसरोकारिता का निरंतर अभाव पाया जा रहा है। यदि मीडिया के जनसरोकारिता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो अपने उद्भव काल से इसमें यह गुण विघमान रहा है। जब 1780 ई. में जेम्स अगस्त हिकी ने भारत के पहले अखबार की शुरुआत की तब देखा गया कि हिकी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के आला अफसरों की दुर्नीतियों और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया। इसका नतीजा यह निकला कि उन्हें सरकार द्वारा अनेक प्रकार की प्रताड़ना को झेलना पड़ा तथा विवश होकर भारत देश भी छोड़ना पड़ा। 30 मई 1826 ई. मे जब युगल किशोर शुक्ल के संपादन में साप्ताहिक अखबार 'उदंत मार्तंड' निकला तब उसके प्रवेशांक में यह उदघोषणा छपी थी-'हिन्दुस्तानियों के हित के हेतु अर्थात् समाचार पत्र का प्रकाशन सत्ता से लेकर व्यापार तक किसी वर्ग विशेष के हितों की पैरवी अथवा संरक्षण के लिए नहीं होता है, बल्कि उसके प्राणतत्व सामाजिक सरोकार होते है। ' यदि भारत के आजादी के समय देखा जाय तो उस समय मीडिया में जो जनसरोकारिता थी वह पूरी तरह से रची बसी थी। उस समय की मीडिया विभिन्न प्रकार के जोखिमों को उठाते हुए आमजनमानस के साथ खड़ा होकर उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ता था। सन 1927 ई. में माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था-'समाचार पत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उसके सिर जोखिम भी कम नहीं है। पर्वत की जो शिखरे हिम सी चमकती और राष्ट्रीय रक्षा की महान दीवार बनती है, उन्हें ऊंची होना पड़ता है। जगत में यदि समाचार पत्र बड़प्पन पाए हुए है तो उनकी जिम्मेदारी भी भारी है। बिना जिम्मेदारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या? और वह बड़प्पन तो मिट्टी के मोल हो जाता है जो अपनी जिम्मेवारी को नहीं संभाल सकता। 

 स्वतंत्रता प्राप्त के बाद देखा जाए तो शनैः-शनैः मीडिया की सरोकारिता बदलती रही है। आज मीडिया में विभिन्न औघोगिक घरानों के पैसे लग रहे है जो उसे मिशनरी परंपरा से बदल करके इंडस्ट्री बना दिए है। ऐसे में मीडिया प्रोफेशनल हो गई है। प्रोफेशनल होना कोई बुरी बात नहीं है क्योंकि इससे सुप्रबंधन तथा कार्यकुशलता की आशा की जाती है परन्तु बाजारु हवस ने मीडिया के जनसरोकारिता को भूला दिया है। आज देखा जा रहा है कि जिस तरह मीडिया पर पूंजी का शिकंजा कसता जा रहा है वैसे वैसे आमजन की आवाज को बुलंद करने वाली मीडिया का दायरा सिमटता जा रहा है और आज हालात यह हो गये है कि मीडिया से किसान, दलित, आदिवासी गायब होते जा रहे है। इनके विषय में बात करने या इनकी समस्याओं को उठाने के लिए मीडिया के पास समय नहीं है। इस संदर्भ में मीडिया समीक्षक मुकेश कुमार का कहना है-'वास्तव में मुख्यधारा का मीडिया बाजार प्रेरित पाॅप संस्कृति से प्रेरित है, जिसका उद्देश्य अपने उपभोक्ताओं को उनके उपयोग की हल्की फुल्की जानकारियां मनोरंजन की चाशनी में लपेट कर देना भर है। वह फास्टफूड तैयार करता है, उसने खुद को उन नूडल्स में तब्दील कर लिया है, जो दो मिनट में तैयार हो जाते है और दस मिनट में खत्म। दिक्कत यह है कि उसके पैकेट में न तो यह लिखा होता है कि उसकी सामग्री किन तत्वों से बनी है और न ही कोई चेतावनी का जिक्र किया जाता है है। 

  पहले के समाचार पत्र संस्कृति के वाहक थे। उनके संपादकीय पृष्ठ विचारों के स्रोत होते थे। उनमें स्वस्थ मनोरंजन के लिए साहित्य के परिशिष्ट होते थे जिसका रसास्वादन प्रायः लोग करते थे। सचमुच पत्रकारिता का मकसद एक चेतनशील नागरिकों का निर्माण करना था। पर आजकल की मीडिया का मकसद भीड़ का निर्माण करना हो गया है विवेकवान नागरिक का नहीं। इस भीड़ के संदर्भ में हरिशंकर परसाई ने लिखा है - 'दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसकारी बेकार युवकों की भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते है। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक कार्य कराये जा सकते है। यह भीड़ फासिस्टो का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है। 

 सचमुच जनसरोकारी पत्रकारिता का यह ध्येय होना चाहिए कि वह जनता के लिए, जनतांत्रिक मूल्यों के हित के लिए जन की आवाज बनकर सत्ता के बहरे कानों तक पहुंचे। मीडिया की जनसरोकारिता तभी मानी जायेगी जब यह सत्ता प्रेम के बजाय जन प्रेम की ओर अभिमुख हो। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ और सच का पहरेदार बने रहने के लिए उसे लोक को अपने मन मस्तिष्क में बिठाना होगा। और एक पत्रकार को जनसरोकारिता के लिए जोखिमों से टकराने के लिए सदैव तैयार रहना होगा जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा है-
  अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे। 
छोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब। 

पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार। 
तब कहीं देखने मिलेंगी बाॅहे
जिसमें की प्रतिपल कांपता रहता
 अरुण कमल एक.... ।
        

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