नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र.
वर्तमान दौर में दो प्रकार की मीडिया का प्रचलन है जिसे इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के नाम से जाना जाता है। आजकल तो सोशल मीडिया का धड़ल्ले से प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह एक ऐसा प्लेटफार्म है जहाँ पर व्यक्ति को अपने मन की बातें व्यक्त करने के लिए व लोगों तक पहुंचाने के लिए किसी अन्य व्यक्ति अर्थात् पत्रकार का मुंह नहीं ताकना पड़ता है बल्कि वह अपने विचार या मनोभाव को समाज के समक्ष स्वयं प्रस्तुत कर सकता है। मीडिया के क्षेत्र में इस प्रकार विविधता का आगमन सुखद स्थिति का सूचक है। चूँकि सोशल मीडिया में भी इलेक्ट्रॉनिक युक्त का प्रयोग किया जाता है अतः इसे भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है।
यदि हम प्रिंट मीडिया की तरफ दृष्टिपात करे तो जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि यह एक मुद्रित माध्यम है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के दैनिक, साप्ताहिक अखबार व पत्रिकाओं को समाहित किया जाता है। आज देखा जाय तो भारतीय पत्रकारिता की आयु दो सौ इक्तालिस बरस हो गई है। 29 जनवरी 1780 में भारत का पहला अखबार बंगाल गजट निकला। इसके संपादक ब्रिटिश हुकूमत की छत्रछाया में व्यापार करने वाले आयरिश मूल के व्यक्ति जेम्स आगस्टस हिक्कि थे। उन्हें पत्रकारिता करने की कोई विशेष रुचि नहीं थी जैसा कि उन्होंने ने लिखा है "मुझे अखबार छापने का कोई विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकी योग्यता है कठिन परिश्रम करना मेरे स्वाभाव में नहीं है। तब भी मुझे अपने शरीर को कष्ट देना स्वीकार है ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त कर सकू।" इस प्रकार देखे तो हिक्कि की नजरों में स्वाधीनता का मूल्य बहुत मायने रखता है जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया। उनके मन में यह स्वाधीनता रुपी मूल्य ही था कि नितांत सीमित साधनों में यह दो पन्ने का साप्ताहिक अखबार जो ब्रिटिश हुकूमत के सामने बहुत मामूली चीज थी पर उसने भारी हलचल पैदा कर दी थी। उनका पत्रकारिता मे कोई विशेष चाव नहीं था जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया है पर न्यूज सेंस यानी क्या समाचार है क्या नहीं है यह उनमें कूट कूटकर भरा था। यह सही है कि उनका यह अखबार ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के कारण दो वर्ष से अधिक नहीं चल पाया पर उन्होंने भारत में पत्रकारिता के विकास का मार्ग तो खोल ही दिया था। आगे चलकर अनेक भारतीय क्रांतिकारी पत्रकारों ने यह जिम्मा पूरी तरह संभाल लिया और सभी ने मिलकर इस कारवां को आगे बढ़ाया।
ऐसे पत्रकारों ने जिनके ह्रदय में पत्रकारिता के प्रति मूल्य, निष्ठा और नैतिकता आदि विघमान थी उन्होंने इसे आगे बढ़ाते हुए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रुप में स्थापित कर दिया। लोकतंत्र के सेहत को दुरुस्त बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि मीडिया निरपेक्ष ढंग से समाज व देश के सभी मुद्दों को समुचित स्थान दे। एक समय था जब जवाहरलाल नेहरु ने भी मीडिया की निष्पक्षता पर विशेष बल दिया था। आप कह सकते है कि उस समय की परिस्थितियाँ अलग थी जरुर थी पर उस समय मीडिया में सामाजिक सरोकार व नैतिकता से जुड़े कुछ मूल्य भी होते थे जिसके दायरे मे रहकर वे पत्रकारिता करते थे। 1991 ई में जब भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया लागू हुई तो इसने पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जिसका परिणाम यह निकला कि भारत में बाजारवाद पनपा। इस बाजारीकरण ने जहाँ पर समाज को विभिन्न आयामों से प्रभावित किया वहीं पर मीडिया संस्थान भी इसकी चकाचौंध में आ गए। इस बाजारवादी व्यवस्था ने मीडिया की खबरों को एक उत्पाद बना दिया जिस प्रकार से व्यापारी अपने उत्पाद को अधिक से अधिक कीमत पर बेंचकर लाभ कमाना चाहता है उसी प्रकार से मीडिया संस्थान भी खबरों को बाजार में बेचकर ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की होड़ में शामिल होते जा रहे है। ऐसी स्थिति में जब खबरों के मार्फत से अधिकतम मुनाफा कमाना मकसद बन जाए तो यह स्वाभाविक है कि नैतिकता और सामाजिक सरोकार जैसी चीजें पीछे छूट जायेंगी। आज के समय में देखा जा रहा है कि मीडिया संस्थान ज्यादा से ज्यादा टीआरपी व विज्ञापन हथियाने के चक्कर में कई प्रकार की गलतियां करते जा रहे है और इन गलतियों का परिणाम यह निकलकर सामने आ रहा है कि मीडिया के प्रति समाज में नकारात्मकता बढ़ती जा रही है। पत्रकारिता के प्रति लोगों का जो विश्वास था वह कम होता जा रहा है तथा समाचारों के प्रति लोग संदेह की दृष्टि से देखने लगे है जो मीडिया के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
अब हम बात करते हैं प्रिंट मीडिया के भविष्य की, यदि सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो प्रिंट मीडिया के लिए सबसे ज्यादा खतरा आज के समय में जो बताई जा रही है वह है नई मीडिया। इस नई मीडिया के अन्तर्गत सोशल मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आदि को शामिल किया जाता है। प्रसिद्ध लेखक फिलिप मेयर ने अपनी किताब 'द वैनिशिंग न्यूजपेपर्स' में इस बात को लेकर यह आशंका जाहिर किया है कि आने वाले समय में प्रिंट मीडिया का भविष्य खत्म हो जायेगा। यही वजह है कि दुनिया के प्रमुख अखबारी संस्थान अपने इंटरनेट संस्करण को ज्यादा से ज्यादा तवज्जो देने लग गए है। इस ईपेपर के माध्यम से किस प्रकार अधिक से अधिक लाभ कमाया जाय तथा विज्ञापनों के माध्यम से किस प्रकार पैसा वसूला जाय इसके तरीके भी तलाश करने में लगे है। फिलिप मेयर के इस भविष्यवाणी की सच्चाई पश्चिमी देशों के अखबारों के प्रति सत्य हो सकती है पर भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में इसे सही नहीं माना जा सकता है। यदि हम गौर करें तो मेयर की यह किताब सन् 2004 ई. में आई और यदि हम सन् 2004 से 2009 के बीच पूरी दुनियां में अखबारों की प्रसार संख्या देखे तो नौ फीसदी की बढ़ोतरी हुई। यह सही है कि इस दौरान इंटरनेट की प्रसार संख्या में काफी इजाफा हुआ है पर दूसरी तरफ अखबारों की प्रसार संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। भारत के संदर्भ में देखा जाय तो प ले अखबार व पत्रिका जहां पर शहरों तक ही सीमित होते थे वहीं पर आज यातायात के साधनों कू विकास व गांवो तक पक्की सड़कों के निर्माण से ये अखबार देहातों तक आसानी से पहुंच जा रहे है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न प्रकार के ई साधनों के विकास होने के बावजूद प्रिंट मीडिया के अस्तित्व में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं दर्ज की गई है। इससे साफ जाहिर हो जाता है कि प्रिंट मीडिया अर्थात् अखबारों को कम से कम इंटरनेट आदि से खतरे वाली बात सही नहीं है।
सही मायनों में अगर प्रिंट मीडिया पर कोई संकट है तो वह विश्वसनीयता और सामाजिक सरोकारिता का है। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहा था कि "अगर अखबार समाज से कट गये तो फिर उन्हें कोई नहीं बचा सकता है"। यह सही है कि आज प्रिंट मीडिया में पूंजी का दखल बढ़ता जा रहा है ऐसे में उनका जोर समाजिक सरोकार के प्रति कम होकर मुनाफे के प्रति ज्यादा केन्द्रित रहता है। कुलपति अच्युतानंदन मिश्र ने कहा था "अखबारों के विस्तार के बावजूद उनका सामाजिक सरोकार लगातार कम होता जा रहा है। वे लोगों और उनकी वास्तविक जरुरतों से कटते जा रहे हैं। संपादक की संस्था के क्षय के साथ अखबार बड़ी पूंजी के मुखपत्र बन गए है।" यह सही है कि अखबार निकालने के लिए पूंजी की जरुरत होती है और विज्ञापन ही वह साधन है जिससे अखबार को पूंजी मिलती है। ऐसे में प्रिंट मीडिया को इस बात का ध्यान रखना होगा कि बाजार और सरोकार में एक संतुलन स्थापित हो। जब इन दोनों में संतुलन होता है तभी अखबार और पत्रिकाओं का औचित्य नजर आता है।
वर्तमान समय में पेड न्यूज का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। पेड न्यूज से तात्पर्य है पैसा लेकर खबर छापना साथ ही साथ विज्ञापन को पैसा लेकर खबर बना देना। यह परंपरा इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया दोनों में चल रही है पर हम तो सिर्फ प्रिंट मीडिया की ही बात करेंगे। पेड पत्रकारिता के आगाज के संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार और प्रथम प्रवक्ता के संपादक रामबहादुर राय कहते है-"पैसे लेकर खबर छापनें की कुप्रथा तो 1990 के दशक में शुरु हो गई थी जब महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें एक पत्रकार ने बताया कि किस प्रकार प्रत्याशियों से पैसे लेकर खबरों को प्रकाशित किया जा रहा है"। पेड न्यूज से तत्कालिक रुप से मीडिया संस्थान को तो लाभ हो सकता है पर दीर्घकालिक तौर पर यदि देखा जाय तो ये मीडिया संस्थान अपने उस बहुमूल्य विश्वास को खोते जा रहे है। वरिष्ठ पत्रकार आनंद प्रधान का मत है-" कहने की जरुरत नहीं है कि पैसे लेकर खबर छापना साफ तौर पर पाठकों के साथ धोखा है। अखबार और पाठक के बीच एक विश्वास का रिश्ता होता है। यह विश्वास इस आधार पर बनता है कि अखबार के पाठक को सही, निष्पक्ष, पूर्वाग्रह रहित, वस्तुनिष्ठ और तथ्यपूर्ण खबर देगा। इसके बदले में पाठक अखबार की कीमत चुकाता है। यह ठीक है कि पाठक अखबार की पूरी लागत के बराबर कीमत नहीं देता है और अखबार इसकी भरपाई विज्ञापनों से करते है लेकिन अखबार और पाठक के बीच विश्वास के रिश्ते में यह साफ तौर पर परिभाषित है कि अखबार विज्ञापन और खबर को अलग अलग रखेगा और उन्हें किसी भी सूरत में नहीं मिलाएगा। दोनों के बीच फर्क को स्पष्ट करने के लिए अखबार ऐसे उपाय करता है कि जिससे पाठक को किसी तरह का भ्रम न हो। "
मीडिया संस्थान पेड न्यूज के संदर्भ में भले ही यह सवाल करते है कि आपके पास क्या सबूत है कि हम पैसे लेकर खबर छाप रहे है। यह सच है कि जनता इसका कोई प्रमाण नहीं दे सकती है पर हां जो समाचारों के प्रस्तुति करण का ढंग है उससे कहीं न कहीं पाठक के मन में बेईमानी की बू तो आने ही लगती है। पेड न्यूज रुपी कैंसर को कैसे खत्म किया जाय इस पर कई विद्वानों ने गंभीरता से विचार किया है। पत्रकार राजदीप देसाई ने लिखा है - "अगर पेड न्यूज के मामले में देश के सभी संपादक एक आचार संहिता को पालन करने के लिए तैयार हो जाय और हर संपादक विज्ञापन को विज्ञापन बताए तो पेड न्यूज रुपी इस कैंसर से निजात पाने की पुरी उम्मीद है।" वहीं पर बीजी वर्गीज कहते है-"पैसे लेकर खबर छापने की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जनता के बीच जागरूकता फैलाना बेहद जरुरी है। इस प्रवृत्ति के खिलाफ जनमत तैयार करना बेहद जरूरी है। इसके अलावा पत्रकारों को समझाना होगा कि पत्रकारिता सिर्फ एक पेशा भर नहीं है।" इसी प्रकार कुछ लोगों का मत है कि इस कुप्रथा को रोकने के लिए सियासी दलों को प्रयत्न करना चाहिए। यह सही है कि राजनीतिक दल पैसे देकर चुनाव के दौरान खबर छपवाते है इस पर चुनाव आयोग को भी ध्यान देने की जरुरत है।
इस प्रकार यदि प्रिंट मीडिया के भविष्य को बचाना है तो हमें इन बुराइयों से बचना होगा। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाता है। यह पेड न्यूज रुपी दीमक इस चौथे स्तम्भ को निरंतर कमजोर करता जा रहा है। यदि यह स्तम्भ कमजोर होगा तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था भी स्वाभाविक रुप से कमजोर होगी। इस स्तंभ को हमें विश्वास, निष्ठा और ईमानदारी रुपी सीमेंट से इतना मजबूत बनाना होगा कि इसे कमजोर पड़ने की आशंका लेशमात्र न रह जाय।