राजेश चौधरी
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किसान आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के बाद कई लोगों के खिलाफ पुलिस ने राजद्रोह का केस दर्ज किया है। अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या है और कब राजद्रोह का केस दर्ज हो सकता है, ये अहम सवाल हैं। इसके प्रावधान क्या हैं, बता रहे हैं राजेश चौधरी
Q. अभिव्यक्ति की आजादी क्या है?
A. कानूनी जानकार और सीनियर एडवोकेट के. के. मनन बताते हैं कि संविधान के अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है। संविधान के मौलिक अधिकारों में यह महत्वपूर्ण अधिकार है। इसी अधिकार के तहत लोग विचार अभिव्यक्ति कर सकते हैं। अपनी सहमति और असहमति जता सकते हैं। शांतिपूर्ण तरीके से धरना प्रदर्शन कर सकते हैं। इसी अधिकार के तहत लोग अपनी विचारधारा को प्रकट करते हैं कोई भी शख्स कानून के दायरे में सरकार की किसी भी नीति की आलोचना कर सकता है। अभिव्यक्ति की आजादी बेहद अहम है। लेकिन यह अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है।
Q. इंटरनेट पर विचार अभिव्यक्ति क्या है?
A. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इंटरनेट के जरिये विचार अभिव्यक्ति का अधिकार और व्यापार व व्यवसाय का अधिकार संवैधानिक तौर पर संरक्षित है और इस पर संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही अंकुश लगाया जा सकता है। इंटरनेट के जरिये अभिव्यक्ति औचित्यपूर्ण है और मौजूदा समय में नेट सूचना का महत्वपूर्ण माध्यम है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इंटरनेट के जरिये विचार अभिव्यक्ति का अधिकार अनुच्छेद-19(1)(ए) के तहत संविधान का अभिन्न अंग है। कोरोबार करने में भी इंटरनेट महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इस तरह इंटरनेट के जरिये व्यवसाय और व्यापार का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (जी) के तहत संरक्षित है। इस पर अनुच्छेद-19(2) के तहत ही अंकुश लगाया जा सकता है।
Q. अभिव्यक्ति की आजादी में वाजिब रोक क्या है?
A. हाई कोर्ट के रिटायर जस्टिस एसएन ढींगड़ा बताते हैं कि अनुच्छेद-19 (2) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी में वाजिब रोक है।अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं है बल्कि अनुच्छेद-19 (2) में वाजिब रोक है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की अखंडता और संप्रभुता को चुनौती नहीं दी जा सकती। अदालत की अवमानना नहीं की जा सकती या फिर किसी और की मानहानि नहीं की जा सकती है। इसके लिए एक लक्ष्मण रेखा बनाई गई है। अगर देश की संप्रभुता, देशहित के खिलाफ बातें की जाती हैं तो अभिव्यक्ति की आजादी पर उचित अंकुश लगाया जा सकता है। विचार अभिव्यक्ति का अधिकार वहां खत्म हो जाता है जहां कानून का उल्लंघन होने लगे। विचार अभिव्यक्ति के नाम पर पब्लिक ऑर्डर नहीं बिगाड़ा जा सकता है। देश की संप्रभुता को चुनौती नहीं दी जा सकती । देश की संप्रभुता को अगर चुनौती दी जाती है और पब्लिक ऑर्डर बिगाड़ा जाता है और हिंसा होती है तो इसके लिए जिम्मेदार शख्स पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो सकता है।
Q. राजद्रोह से संबंधित कानून क्या कहता है?
A. क्रिमिनल लॉयर नवीन शर्मा बताते हैं कि आईपीसी की धारा-124 ए में राजद्रोह को परिभाषित किया गया है। अगर कोई भी शख्स देश (भारत सरकार) के खिलाफ लिखकर, बोलकर या फिर किसी भी माध्यम से अभिव्यक्ति के जरिये विद्रोह करता है या फिर अपने कथनी से दो समुदायों के बीच नफरत के बीज बोता है या फिर ऐसी कोशिश करता है तो वह राजद्रोह का केस बनेगा। या फिर ऐसा बयान देता है कि जिससे देश में बयान से नफरत पैदा होती है और देश के खिलाफ बयान देने से पब्लिक ऑर्डर प्रभावित होता है तो राजद्रोह का केस बनेगा। इसमें दोषी पाए जाने पर अधिकतम उम्रकैद की सजा का प्रावधान है।
Q. अभिव्यक्ति और राजद्रोह के बीच जो सीमा है, उसे कैसे समझा जाए?
A. रिटायर जस्टिस एसएन ढींगड़ा बताते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं है संविधान वाजिब रोक की बात करती है। ऐसे में जब कोई भी शख्स पब्लिक डोमेन में कोई बात रखता है या कोई सूचना देता है तो तथ्य सही होना जरूरी है। अभिव्यक्ति के नाम पर गलत जानकारी नहीं फैलाई जा सकती क्योंकि गलत सूचना देने से अगर पब्लिक ऑर्डर खराब हो सकता है और हिंसा होती है या फिर देश के खिलाफ विद्रोह होता है तो वह राजद्रोह के दायरे में आ जाएगा। ऐसे में कोई भी ट्वीट या फिर जानकारी सच होना जरूरी है और उसे पुख्ता किया जाना जरूरी है। गलत मंशा से अगर पब्लिक ऑर्डर खराब करने के लिए कोई लिखता या बोलता है तो वह अपराध की श्रेणी में आएगा।
Q. कौन-सी आलोचना राजद्रोह नहीं है?
A. सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट के.टी.एस. तुलसी बताते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी और राजद्रोह, दोनों में संतुलन बनाना जरूरी है। सरकार की स्वस्थ्य आलोचना राजद्रोह नहीं होता। कोई भीड़ को उकसाए और विद्रोह करने के लिए भड़काऊ बातें करे और हिंसा हो जाए तो वह राजद्रोह होगा लेकिन सरकार की स्वस्थ आलोचना कोई करता है और सही बात लोगों के बीच में लाता है तो वह राजद्रोह नहीं है। सरकार और देश में फर्क है। देश की संप्रभुता को चुनौती देना राजद्रोह है लेकिन सरकार की नीति से असहमत होना और स्वस्थ्य आलोचना राजद्रोह नहीं है।
Q. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले भी हैं, वे क्या कहते हैं?
A. एडवोकेट तुलसी बताते हैं कि बाद में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के वाद में महत्वपूर्ण व्यवस्था दी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा-124 ए को संवैधानिक करार दिया था। अदालत ने कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कमेंट करने से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। राजद्रोह का केस तभी बनेगा जब कोई भी वक्तव्य ऐसा हो जिसमें हिंसा फैलाने की मंशा हो या फिर हिंसा बढ़ाने का तत्व मौजूद हो। 1995 में बलवंत सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सिर्फ नारेबाजी से राजद्रोह नहीं हो सकता। कैजुअल तरीके से कोई नारेबाजी करता है तो वह राजद्रोह नहीं माना जाएगा। इस मामले में दो सरकारी कर्मियों ने देश के खिलाफ नारेबाजी की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नारेबाजी भर से देश को खतरा का मामला नहीं बनता। राजद्रोह तभी बनेगा जब नारेबाजी के बाद विद्रोह पैदा हो जाए और समुदाय में नफरत फैल जाए।
संडे नवभारत टाइम्स में प्रकाशित, 31.01.2021