विश्वपति वर्मा-
प्रदेश भर के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है,चिकित्सकों की उपलब्धता न होने के कारण सैकड़ों लोगों की मौत इलाज के अभाव में हो जाती है ,ग्रामीण क्षेत्रों से जाने वाले मरीजों को अस्पताल के ओपीडी से ही यह कहकर बाहर भेज दिया जाता है कि सब कुछ ठीक है ,100 -50 या हजार -पांच सौ के मूल्यों की दवाओं को देकर मरीज को अगले हप्ते या महीने तक आराम करने के लिए बोल दिया जाता है इस बीच भी न जाने कितने लोगों की जान चली जाती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलीजेंस की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017 के दौरान सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच में यह पाया गया कि मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीजों की तादाद महज एक साल में दोगुनी हो गई है.रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017 के दौरान सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच में यह भी पाया गया कि एक साल के दौरान कैंसर के मामले भी 36 फीसदी तक बढ़ गए हैं.रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है और फिलहाल देश में 11,082 की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के अनुसार, यह अनुपात प्रति एक हजार व्यक्तियों पर एक होना चाहिए. इस लिहाज से देखें तो यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है.बिहार जैसे राज्यों में तो तस्वीर और भी धुंधली है, जहां 28,391 लोगों की आबादी पर एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है. उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं.डॉक्टरों की कमी होने का नतीजा यह है कि झोलाछाप डॉक्टरों को लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने का मौका मिल जाता है.
गैर सरकारी संगठनों की मानें तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत बहुत खराब है. इन इलाकों में झोलाछाप डॉक्टरों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है.विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2016 के आंकड़े डराने वाली तस्वीर दिखाते हैं. इनके अनुसार, भारत में एलोपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है.मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे. इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर थे. शेष डॉक्टर निजी अस्पतालों में कार्यरत हैं अथवा अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं
यहां यह सवाल है कि देश में आखिर कितने लोग हैं जो आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि निजी अस्पतालों और निजी डॉक्टरों से इलाज करा सकें.विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से ही निकलता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 17.3 प्रतिशत है.रिपोर्ट में कहा गया है कि आधे भारतीयों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच ही नहीं है, जबकि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने वाले लोग अपनी आय का 10 फीसदी से ज्यादा इलाज पर ही खर्च कर रहे हैं.संगठन की विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में लगभग 23 करोड़ लोगों को 2007 से 2015 के दौरान अपनी आय का 10 फीसदी से अधिक पैसा इलाज पर खर्च करना पड़ा. यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी से भी अधिक है.
भारत की तुलना में इलाज पर अपनी आय का दस प्रतिशत से अधिक खर्च करने वाले लोगों का प्रतिशत श्रीलंका में 2.9 फीसदी, ब्रिटेन में 1.6 फीसदी, अमेरिका में 4.8 फीसदी और चीन में 17.7 फीसदी है.विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ट्रेडोस एडहानोम गेबेरियस ने एक विज्ञप्ति में कहा, ‘बहुत से लोग अभी भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं, जिनका इलाज मौजूद है और जिसे बड़ी आसानी से रोका जा सकता है. बहुत से लोग केवल इलाज पर अपनी कमाई खर्च करने के कारण गरीबी में उलझ जाते हैं और बहुत से लोग स्वास्थ्य सेवाओं को ही पाने में असमर्थ हैं. यह अस्वीकार्य है.’डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है देश की आबादी का कुल 3.9 प्रतिशत यानी 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से ज्यादा खर्च इलाज पर ही कर देते हैं, जबकि श्रीलंका में ऐसी आबादी महज 0.1 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी और चीन में 4.8 फीसदी है.रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की बुनियादी जरूरतें भले ही हैं, लेकिन अच्छा स्वास्थ्य और उसे बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है और उसके लिए डाक्टरों की कमी को दूर करना समय की पहली जरूरत है.
इन आंकड़ों को देखने के बाद एक बार फिर सवाल पैदा होता है कि आखिर हम कैसे दुनिया का महाशक्ति बनने का सपना देख रहे हैं? क्या मरीजों के बोझ से कराह रहे अस्पतालों की स्थिति देखकर किसी विकसित देश का नागरिक भारत के अस्पतालों को सकारात्मक रेटिंग देगा? क्या चिकित्सा की ठोस व्यवस्था करे बगैर हम बच्चे बच्चियों के भविष्य को संवार सकते हैं? क्या चिकित्सा के संसाधनों के बगैर ही हम देश में अच्छे दिनों की बात करते रहेंगे? या फिर चिकित्सा की व्यापक व्यवस्था, डॉक्टरों की पूर्ति,दवाओं और संसाधनों की भावी जरूरतों का ब्लू प्रिंट तैयार कर सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में काम करेंगे ।
प्रदेश भर के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है,चिकित्सकों की उपलब्धता न होने के कारण सैकड़ों लोगों की मौत इलाज के अभाव में हो जाती है ,ग्रामीण क्षेत्रों से जाने वाले मरीजों को अस्पताल के ओपीडी से ही यह कहकर बाहर भेज दिया जाता है कि सब कुछ ठीक है ,100 -50 या हजार -पांच सौ के मूल्यों की दवाओं को देकर मरीज को अगले हप्ते या महीने तक आराम करने के लिए बोल दिया जाता है इस बीच भी न जाने कितने लोगों की जान चली जाती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलीजेंस की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017 के दौरान सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच में यह पाया गया कि मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीजों की तादाद महज एक साल में दोगुनी हो गई है.रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2017 के दौरान सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच में यह भी पाया गया कि एक साल के दौरान कैंसर के मामले भी 36 फीसदी तक बढ़ गए हैं.रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है और फिलहाल देश में 11,082 की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के अनुसार, यह अनुपात प्रति एक हजार व्यक्तियों पर एक होना चाहिए. इस लिहाज से देखें तो यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है.बिहार जैसे राज्यों में तो तस्वीर और भी धुंधली है, जहां 28,391 लोगों की आबादी पर एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है. उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं.डॉक्टरों की कमी होने का नतीजा यह है कि झोलाछाप डॉक्टरों को लोगों के जीवन से खिलवाड़ करने का मौका मिल जाता है.
गैर सरकारी संगठनों की मानें तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत बहुत खराब है. इन इलाकों में झोलाछाप डॉक्टरों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है.विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2016 के आंकड़े डराने वाली तस्वीर दिखाते हैं. इनके अनुसार, भारत में एलोपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है.मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे. इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर थे. शेष डॉक्टर निजी अस्पतालों में कार्यरत हैं अथवा अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं
यहां यह सवाल है कि देश में आखिर कितने लोग हैं जो आर्थिक रूप से इतने सक्षम हैं कि निजी अस्पतालों और निजी डॉक्टरों से इलाज करा सकें.विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से ही निकलता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 17.3 प्रतिशत है.रिपोर्ट में कहा गया है कि आधे भारतीयों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच ही नहीं है, जबकि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने वाले लोग अपनी आय का 10 फीसदी से ज्यादा इलाज पर ही खर्च कर रहे हैं.संगठन की विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में लगभग 23 करोड़ लोगों को 2007 से 2015 के दौरान अपनी आय का 10 फीसदी से अधिक पैसा इलाज पर खर्च करना पड़ा. यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी से भी अधिक है.
भारत की तुलना में इलाज पर अपनी आय का दस प्रतिशत से अधिक खर्च करने वाले लोगों का प्रतिशत श्रीलंका में 2.9 फीसदी, ब्रिटेन में 1.6 फीसदी, अमेरिका में 4.8 फीसदी और चीन में 17.7 फीसदी है.विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ट्रेडोस एडहानोम गेबेरियस ने एक विज्ञप्ति में कहा, ‘बहुत से लोग अभी भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं, जिनका इलाज मौजूद है और जिसे बड़ी आसानी से रोका जा सकता है. बहुत से लोग केवल इलाज पर अपनी कमाई खर्च करने के कारण गरीबी में उलझ जाते हैं और बहुत से लोग स्वास्थ्य सेवाओं को ही पाने में असमर्थ हैं. यह अस्वीकार्य है.’डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है देश की आबादी का कुल 3.9 प्रतिशत यानी 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से ज्यादा खर्च इलाज पर ही कर देते हैं, जबकि श्रीलंका में ऐसी आबादी महज 0.1 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी और चीन में 4.8 फीसदी है.रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की बुनियादी जरूरतें भले ही हैं, लेकिन अच्छा स्वास्थ्य और उसे बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है और उसके लिए डाक्टरों की कमी को दूर करना समय की पहली जरूरत है.
इन आंकड़ों को देखने के बाद एक बार फिर सवाल पैदा होता है कि आखिर हम कैसे दुनिया का महाशक्ति बनने का सपना देख रहे हैं? क्या मरीजों के बोझ से कराह रहे अस्पतालों की स्थिति देखकर किसी विकसित देश का नागरिक भारत के अस्पतालों को सकारात्मक रेटिंग देगा? क्या चिकित्सा की ठोस व्यवस्था करे बगैर हम बच्चे बच्चियों के भविष्य को संवार सकते हैं? क्या चिकित्सा के संसाधनों के बगैर ही हम देश में अच्छे दिनों की बात करते रहेंगे? या फिर चिकित्सा की व्यापक व्यवस्था, डॉक्टरों की पूर्ति,दवाओं और संसाधनों की भावी जरूरतों का ब्लू प्रिंट तैयार कर सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में काम करेंगे ।