संसद की कार्यवाही पर बढ़ते सवाल: ढाई लाख रुपया प्रति मिनट खर्च होने के बाद भी गिर रही सदन की शाख
समीक्षात्मक रिपोर्ट
सौरभ वीपी वर्मा ,तहकीकात समाचार
देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था संसद, जहाँ जनता की आकांक्षाएँ और समस्याएँ उठाई जानी चाहिए, वहाँ अब एक गहरी चिंता उभर रही है। करदाताओं के पैसों से चलने वाली संसदीय कार्यवाही पर प्रतिदिन करोड़ों का व्यय होता है, लेकिन पिछले कई वर्षों में यह पाया गया है कि सदन का बड़ा हिस्सा हंगामों, टकरावों और गैर-जरूरी विवादों में जाया हो रहा है। परिणामस्वरूप न तो जनहित की बहसें पूरी होती हैं और न ही विकास से जुड़े प्रश्नों पर गंभीर मंथन संभव हो पाता है।
अनुमानों के अनुसार संसद की कार्यवाही पर लगभग ₹2.5 लाख प्रति मिनट का खर्च आता है। यह रकम कोई मामूली नहीं है एक घंटे का खर्च करीब ₹1.5 करोड़, और एक कार्यदिवस पर ₹10 करोड़ के आसपास बैठता है। यह वह धन है जिससे सड़कों, अस्पतालों, शिक्षा और ग्रामीण विकास के अनेकों प्रोजेक्ट पूरे किए जा सकते थे। ताज़ा आँकड़े बताते हैं कि लोकसभा व राज्यसभा की औसत उत्पादकता 35%–55% के बीच झूल रही है। यानी आधे से अधिक समय में सदन या तो बाधित रहता है, या तुच्छ और राजनीतिक टकराव वाले मुद्दे हावी रहते हैं।
रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि कई दिनों में संसद मुश्किल से एक-दो घंटे ही चल पाती है। बाकी समय शोर-शराबे में बीत जाता है। विश्लेषकों के अनुसार सदन का मात्र 10 मिनट का व्यवधान भी ₹25 लाख की प्रत्यक्ष हानि के बराबर है। कुछ सत्रों में हंगामों के कारण सैकड़ों करोड़ रुपये मूल्य का समय बर्बाद हुआ है। यह सिर्फ आर्थिक क्षति नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक दायित्व की विफलता भी है।
महँगाई, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य व्यवस्था, कृषि संकट, स्थानीय विकास ये वे मुद्दे हैं जिन्हें उठाने के लिए लोग अपने सांसद चुनते हैं। लेकिन जब सदन में बार-बार व्यवधान होता है, प्रश्न नहीं पूछे जाते, और विधेयकों पर गंभीर चर्चा नहीं होती तो सीधा नुकसान जनता का होता है। संसदीय समितियों में विशेषकर उन बिलों की विस्तृत समीक्षा होनी चाहिए, लेकिन हंगामों से प्रभावित सत्रों में समिति-कार्य और जवाबदेही दोनों कमजोर पड़ जाती हैं। परिणामतः कई महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव बिना पर्याप्त चर्चा के आगे बढ़ जाते हैं।
संसदीय विशेषज्ञों का कहना है कि यह स्थिति लंबे समय तक बनी रही तो देश का नीति-निर्माण सतही होता जाएगा। जबकि देखा जाए तो संसद चर्चा के लिए बनी है, प्रदर्शन के लिए नहीं। जब राजनीति शो-प्रधान हो जाए, तो नीतियाँ गंभीरता खो देती हैं।”
यह कटु सत्य है कि संसद का हर मिनट जनता की गाढ़ी कमाई से चलता है। जब वह समय हंगामों में खो जाता है, तो उसका अर्थ केवल आर्थिक क्षति नहीं—बल्कि विकास की संभावनाओं का नाश भी है। संसद का दायित्व सिर्फ राजनीतिक टकरावों को हवा देना नहीं, बल्कि राष्ट्र की नीतियों को दिशा देना है। अब समय आ गया है कि सदन अपनी प्रतिष्ठा और उद्देश्य को पुनः स्थापित करे क्योंकि जहाँ चर्चा मरती है, वहाँ लोकतंत्र कमजोर पड़ जाता है।