फूलन देवी — एक विद्रोही आत्मा, एक अनकही कहानी
25 जुलाई
सौरभ वीपी वर्मा
भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में फूलन देवी का नाम एक ऐसे अध्याय के रूप में दर्ज है, जिसे न तो पूरी तरह अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है, न ही पूरी तरह क्रांति की। एक गरीब मल्लाह परिवार में जन्मी फूलन देवी ने जिस जीवन संघर्ष का सामना किया, वह आज भी भारत की जातिगत, लिंगभेद और सामाजिक अन्याय की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है।
1963 में उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के एक छोटे से गांव में जन्मी फूलन का बचपन अत्यंत गरीबी, शोषण और भेदभाव में बीता। महज 11 साल की उम्र में उनका विवाह एक अधेड़ पुरुष से कर दिया गया, जिसने उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया। यह उनकी पहली असहमति थी, एक विद्रोह — जिसने उन्हें व्यवस्था से लड़ने की राह पर धकेला।
समाज और व्यवस्था ने फूलन को 'डाकू' की छवि दी, लेकिन उन्होंने खुद को एक ऐसी महिला के रूप में देखा, जिसने अपने ऊपर हुए अत्याचारों का जवाब अपनी शर्तों पर दिया। 1981 में बेहमई नरसंहार की घटना, जहां 20 उच्च जाति के पुरुषों की हत्या हुई, फूलन देवी की जिंदगी का वह मोड़ था जिसने उन्हें राष्ट्रीय पटल पर चर्चित और विवादित बना दिया। हालांकि इस घटना के पीछे प्रतिशोध की एक लंबी और दर्दनाक दास्तां छिपी थी जिसमे गैंगरेप, अपमान और असहायता दिखाई दे रहा था।
1983 में फूलन ने मध्यप्रदेश सरकार के सामने आत्मसमर्पण किया। 11 साल की जेल यात्रा के बाद, जब वे बाहर आईं, तो उनका नया रूप समाजवादी राजनीति में देखने को मिला। वे मिर्जापुर से लोकसभा सांसद बनीं और दलित, पिछड़े वर्ग, और महिलाओं के हक की बुलंद आवाज बनीं। संसद में उनका प्रवेश एक प्रतीक था — कि एक "डाकू" कहे जाने वाली महिला, जब व्यवस्था बदल नहीं सकती थी, तो उसने व्यवस्था का हिस्सा बनकर लड़ाई लड़ी।
25 जुलाई 2001 को फूलन देवी की दिन-दहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई। उनकी मौत ने न सिर्फ राजनीति को हिला दिया, बल्कि यह भी सवाल खड़े किए कि क्या समाज ने सच में उन्हें स्वीकार किया था? हत्या के पीछे बदले की भावना, जातीय घृणा और राजनीतिक रंजिश की परतें आज भी पूरी तरह सामने नहीं आ सकीं।
फूलन देवी सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि उस भारत की कहानी हैं, जहां एक दलित महिला ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ अपनी लड़ाई खुद चुनी। वे 'बैंडिट क्वीन' के नाम से जितनी प्रसिद्ध रहीं, उससे कहीं अधिक वे हाशिए के लोगों की आवाज बनीं।
आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना केवल एक महिला को श्रद्धांजलि देना नहीं है, बल्कि उन सभी अनकही आवाजों को सम्मान देना है, जो अब भी समाज में न्याय की प्रतीक्षा में हैं।