बजट में भी छल्ला-छल्ला ,आर्थिक सर्वे और बजट के अध्ययन में 1 लाख 70 हजार करोड़ का हिसाब गायब - तहक़ीकात समाचार

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बुधवार, 10 जुलाई 2019

बजट में भी छल्ला-छल्ला ,आर्थिक सर्वे और बजट के अध्ययन में 1 लाख 70 हजार करोड़ का हिसाब गायब

रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार_

श्रीनिवासन जैन ने एक रिपोर्ट की है. बजट से 1 लाख 70 हज़ार करोड़ का हिसाब ग़ायब है. प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रथिन रॉय ने आर्थिक सर्वे और बजट का अध्ययन किया. उन्होंने देखा कि आर्थिक सर्वे में सरकार की कमाई कुछ है और बजट में सरकार की कमाई कुछ है. दोनों में अंतर है. बजट में राजस्व वसूली सर्वे से एक प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि 1 लाख 70 हज़ार करोड़ की है, क्या इतनी बड़ी राशि की बजट में चूक हो सकती है.

पहले रिवाइज्ड एस्टिमेट को समझिए. इसमें सरकार अनुमान बताती है कि उसकी कमाई कितनी हो सकती है. आर्थिक सर्वे प्रोविज़नल एक्चुअल का इस्तेमाल करता है. मतलब बताता है कि वास्तव में कितनी कमाई हुई. ये ज़्यादा सही आंकड़ा होता है. 2018-19 के बजट में रिवाइज्ड एस्टिमेट 17.3 लाख करोड़ का है. जबकि आर्थिक सर्वे में सरकार की वास्वतिक कमाई 15.6 लाख करोड़ की है. तो 1 लाख 70 हज़ार करोड़ कहां गए?

सरकार की कमाई के हिसाब में अंतर है यानी गड़बड़ी प्रतीत होती है. दूसरी तरफ सरकार के ख़र्चे में भी कमियां पकड़ में आई हैं. बजट में 2018-19 के लिए 24.6 लाख करोड़ का खर्च बताया गया है, जबकि आर्थिक सर्वे में सरकार ने मात्र 23.1 लाख करोड़ खर्च किया है. तो सवाल है कि डेढ़ लाख करोड़ का हिसाब कैसे कम हो गया? श्रीनिवासन जैन ने अपने सवाल वित्त मंत्रालय को भेजे हैं, मगर जवाब नहीं आया है. रथिन राय ने बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार में इस पर विस्तार से लिखा है. रथिन राय का कहना है कि अगर आर्थिक सर्वे का डेटा सही है तो स्थिति गंभीर है. 2014-15 से लेकर अब तक केंद्र सरकार का 1.1 प्रतिशत छोटा हो गया है.

श्रीनिवासन जैन ने भारत के राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग के पूर्व प्रमुख प्रणब सेन से बात की. प्रणब सेना पिछले साल इस्तीफा दे दिया था. उनका कहना है कि अगर ऐसी गलती या चूक किसी कंपनी में हुई होती तो उस कंपनी का मुख्य वित्तीय अधिकारी बर्खास्त कर दिया जाता. कमाई का अनुमान जो बताया जाता है अगर उससे कम कमाई हो और सरकार उसे हाईलाइट न करे तो यह चिन्ता की बात है. सवालों के जवाब मिल सकते थे, लेकिन वित्त मंत्रालय से एक ख़बर है. 'द प्रिंट' नामक वेबसाइट की खबर है, रिपोर्ट का मुखड़ा है, बजट हो गया, लेकिन निर्मला सीतारमण ने वित्त मंत्रालय में पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगाई. जिनके पास पत्र सूचना कार्यालय की मान्यता है वैसे पत्रकार भी तभी प्रवेश कर सकेंगे जब अधिकारी से समय लिया गया होगा.

रेम्या नायर ने यह रिपोर्ट सूत्रों के हवाले से लिखी है. वित्त मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना है कि ऐसा कोई औपचारिक आदेश जारी नहीं हुआ है. रेम्या ने लिखा है कि पहली बार है जब ऐसी बंदिश लगी है. जिनके पास PIB कार्ड होता है वे विदेश और रक्षा मंत्रालय को छोड़कर बाकी सभी मंत्रालयों में बिना रोक-टोक आ-जा सकते हैं. वित्त मंत्रालय में सिर्फ बजट से दो महीने पहले ऐसी रोक लगती है, मगर बजट के बाद भी यह बंदिश नहीं हटाई गई है. इस ख़बर को कुछ और वेबसाइट ने भी रिपोर्ट किया है.

तो जो बजट के हिसाब में 1 लाख 70 हज़ार करोड़ की कमी के सवाल का जवाब कैसे मिलेगा? सरकार दो दस्तावेंजों में अलग-अलग कमाई कैसे बता सकती है. बजट को लाल कपड़े में लाया गया था. एक व्यापारी ने कहा कि हम अपने बहीखाते में कम से कम सही सही लिखते हैं, क्योंकि वो हमारा होता है. तो फिर वित्त मंत्रालय को इस प्रश्न का जवाब नहीं देना चाहिए. क्या मुख्य आर्थिक सलाहकार को नहीं बताना चाहिए कि 1 लाख 70 हज़ार करोड़ का हिसाब कहां गया?

इन लोगों को तो आप रोज़ ही देखते होंगे. अपने अपने शहर की सड़कों पर. गाड़ियों के पीछे भारत की पूरी जातिप्रथा जीवित अवस्था में नामांकित गतिशील नज़र आती है. अभी-अभी गुर्जर की कार निकली नहीं कि बगल से ब्राह्मण की कार आ गई. समझ नहीं आता है कि क्या किसी न्यूट्रल को इन दोनों में से किसी एक को चुनना होगा या दोनों से संभल कर रहना होगा. कारों पर ब्राह्मण, राजपूत, अहीर, यादव, ख़ान, ठाकुर, लिखा देखकर यकीन होता है कि जाति प्रथा एक गतिशील प्रथा है. मेरी राय में मारुति और महिंद्रा को अपने ब्रांड का नाम लिखने की जगह ख़ाली छोड़ देनी चाहिए ताकि लोग अपनी जाति, गोत्र का नाम लिख सकें. आइये इसका विश्लेषण करते हैं. कारणों को गेस करते हैं. क्या वजह होती होगी कारों पर गुर्जर लिखने की, जाट लिखने की या ब्राह्मण लिखने की. क्या कार चोरी करने वाला गिरोह अपने लीडर की जाति का कार नहीं चुराता होगा या खास जाति की कार इसलिए छोड़ देते होंगे कि आस-पास के इलाके में उनका वर्चस्व है. कहीं पकड़ में आ गए तो अंतर्ध्यान कर दिए जाएंगे. या फिर जाति का नाम लिखने से उस जाति के ट्रैफिक पुलिस की मेहरबानी मिल जाएगी. कुछ तो होता है या फिर लोग अपनी मासूमियत में लिख जाते होंगे कि फलां की कार है. उस जाति के लोग में गौरव भाव जागता होगा कि हमारी बिरादरी वाले ने कार खरीदी है. हमें भी कार खरीदनी चाहिए. राजधानी दिल्ली में हर कार की जाति होती है. प्रेस वालों की भी जाति ही होती है, जिसे देखो अपनी कार के शीशे पर प्रेस लिख लेता है. लिखने वाले तो जज भी लिख देते हैं. ब्लॉक प्रमुख, प्रधान और विधायक, सांसद तो मान्य प्रथा है. लोगों की कार लोगों की पहचान है. इन सब लोगों ने अपनी कार पर भारतीय क्यों नहीं लिखा, पता नहीं. भारतीय तो सब है हीं, भारतीय के भीतर जाति सुप्रीम है. ऐसा प्रतीत होता है.


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