किसान: एक जनांदोलन - नीरज कुमार वर्मा - तहक़ीकात समाचार

ब्रेकिंग न्यूज़

Post Top Ad

Responsive Ads Here

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

किसान: एक जनांदोलन - नीरज कुमार वर्मा

नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय 
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र. 

भारत को गांवों का देश कहा जाता है क्योंकि इस देश की अधिकांश जनता गांवों में निवास करती है। इन गांवों में निवास करने वाली जनसंख्या के जीविका का मुख्य आधार कृषि है। दिन-रात अथक परिश्रम करके, विभिन्न प्रकार के मौसम की अनुकूलता प्रतिकूलता को झेलते हुए, जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर जो कृषि कार्य करते है उसे किसान कहते है। 

पूंजीवादी व्यवस्था में जहाँ पर व्यापारी वर्ग रत्ती-रत्ती में लाभ जोड़ता है वहीं पर अन्नदाता ही एक ऐसा वर्ग है जो ज्यादा लाभ हानि की चिंता किए बगैर तन मन से अपने कार्य में रत रहता है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि किसानों को उनके परिश्रम का वाजिब हिसाब कभी नहीँ मिला है।
 स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व के स्थिति का आकलन करें तो उस समय जमींदारी प्रथा का प्रचलन था। जमींदार और सामंत किस प्रकार से किसानों का शोषण करते थे इसका जिक्र प्रेमचंद ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास गोदान(1936) में बखूबी किया है। किस प्रकार होरी नामक किसान इस शोषण की चक्की में पीसता हुआ एक किसान से मजदूर बन जाता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में उसे मजदूरी भी करनी पड़ती है। होरी के साथ साथ उसका सारा परिवार इस गरीबी की मार को झेलता है जिसका जिक्र करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है - "धनिया की छह संतानों में अब केवल तीन जिंदा है, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का। तीन लड़के बचपन में ही मर गये। उसका मन आज भी कहता था अगर उनकी दवादारु होती तो वे बच जाते, पर एक धेले की दवा भी न मंगवा स्की थी। उसकी उम्र ही अभी क्या थी? छत्तीसवां ही साल तो था, पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थी। सारी देह ढल गई थी, वह सुंदर गेहुंआ रंग सॅवला गया था और आंखों से कम सूझने लगा था। पेट की चिंता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। " इस प्रकार प्रेमचंद ने जहाँ पर होरी और उसके कृषक परिवार की दुर्दशा का वर्णन किया है वहीं पर केदारनाथ अग्रवाल ने कृषक परिवार के पीढ़ी दर पीढ़ी मिलने वाली त्रासदी जो विरासत के रुप में होती है का वर्णन करते हुए लिखा है--

     जब बाप मरा तब पाया
     भूखे किसान के बेटे ने
      घर का मलबा टूटी खटिया
      कुछ हाथ भूमि वह भी परती
      बनिया के रुपये का कर्जा
      जो नहीं चुकाने पर चुकता
      दीमक गोजर मच्छर माटा
       ऐसे हजार सब सहवासी
       बस यही नहीं जो भूख मिली
     सौ गुना बाप से अधिक मिली।

कमोबेश यदि आज के समय में देखा जाय तो किसान की यह दशा ज्यों का त्यों बनी है। वर्तमान समय राजनितिक पार्टियों और पूंजीपतियों का गठजोड़ दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। ये पूंजीपति वर्ग राजनैतिक पार्टियों को चुनाव प्रचार में अकूत धन देते है वहीं पर जब ये पार्टियां सत्ता में आती है तो इनके पक्ष में नितियों का निर्माण कर इन्हें पूंजी इकट्ठा करने में परोक्ष सहयोग प्रदान करते है। इन दोनों की संधि का परिणाम यह निकला है कि आज किसान ऋणग्रस्त होकर होरी से दो कदम आगे बढ़ते हुए आत्महत्या करने के लिए के लिए विवश हो रहा है। क्या गांधी ने ऐसे ही सपने को देखकर आजादी की लड़ाई लड़ी थी? बिल्कुल नहीं, गांधीजी ने 'मेरे सपनों का भारत' नामक पुस्तक में लिखा है--"यदि भारतीय समाज को शांति पूर्ण मार्ग पर सच्ची प्रगति करनी है तो धनिक वर्ग को निश्चित रुप से स्वीकार कर लेना होगा कि किसान के पास वैसी ही आत्मा है जैसी उनके पास है और अपनी दौलत के कारण वे गरीब से श्रेष्ठ नहीं है।

      पर ऐसे आदर्श तो वर्तमान में केवल किताबी बातें ही लग रही है। वर्तमान दौर में पूरे देश में किसान, मजदूर, मध्यमवर्ग सत्ता और राजनीति के गठजोड़ के कारण पीड़ित है। आज हमारे देश का अन्नदाता अपने घरों से दूर इस ठिठुरनभरी रात में खुले आसमान के नीचे सोने व बिना  विजली, पानी, मकान के जीवन यापन करने को बेवश है। इसका कारण सरकार के तीन नए कृषि कानून - कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संबर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020,तथा कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्ववासन एवं कृषि सेवाकर विधेयक 2020 तथा आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 है। सरकार इस बात को लेकर डिंगे हांक रही है कि ये तीनो कृषि कानून किसानों की आय को बढ़ाने वाले है। पर यह उस कहावत को चरितार्थ करता है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। सच तो यह है कि यह कानून देशी कार्पोरेट घरानों के साथ साथ विदेशी कंपनियों के पक्ष में है। इस कानून के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त हो जायेगा तथा फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया का अस्तित्व खत्म हो जायेगा। इसके साथ ही भंडारण की सीमा भी खत्म हो जायेगी। इसका नतीजा यह होगा कि देर सबेर सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसके तहत 80 करोड़ जनता को प्राप्त खाघ सुरक्षा भी समाप्त हो जायेगी। वहीं पर दूसरी तरफ कार्पोरेट घरानों के लोग कृषकों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य भी नहीं देंगे और फिर उसी का भंडारण करके उसे की गुना दामों में बेचेंगे। धीरे-धीरे ये कृषकों को अपने अनुसार फसल उगाने को भी विबश करेंगे। ये उन खाघान्न पदार्थों को जिनका अमेरिका और यूरोप में भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उत्पादन नहीं हो पाता है परंतु वहाँ के उपभोक्ताओं के बीच इनकी व्यापक मांग रहती है के उत्पादन के लिए मजबूर करेंगे। इससे भारत की पूरी खाघान्न श्रृंखला तहस नहस हो जायेगी। 

  इन्ही सब काले कृषि कानूनों का विरोध कृषक गाजीपुर, सिंध, टिकरी आदि दिल्ली की सीमाओं पर अहिंसक ढंग से विगत की महीनों से कर रहे है। प्रारंभ में सत्तापक्ष ने किसान आंदोलन पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाए। सरकार का कहना है कि यह आंदोलन विपक्ष के द्वारा प्रायोजित है, तो आगे चलकर कहा कि यह आंदोलन किसानों के कृषि कानूनों के न समझी का परिणाम है और जब सत्ताधारी पार्टी ने विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाकर भी इस आंदोलन को तोड़ न सकी तो वह किसानों को खालिस्तानी आदि कहकर देशद्रोही साबित करने में लग गई। पर ये सब जो विभिन्न प्रकार के आरोप सत्ता पक्ष के द्वारा लगाए गए हैं उसके विपरीत परिणाम निकलकर सामने आये है। देखते-देखते यह किसान आंदोलन जो पंजाब और हरियाणा से उत्पन्न हुआ आज संपूर्ण भारत में फैल गया। आज लगभग 40 किसान संगठनों के संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले यह किसान आंदोलन हो रहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि व्यापक जनसहभागिता वाले किसी बड़े जनांदोलन के बिना कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। जनसहभागिता के साथ जनांदोलन को संगठित होना नितांत आवश्यक होता है। यदि यह जनांदोलन इतना संगठित न होता तो सत्तापक्ष के द्वारा इसे जो कई प्रकार से तोड़ने का प्रयास निरंतर किया जा रहा है उससे यह कब का विखर गया होता। सरकार जहाँ पर सिंधू बार्डर पर बैठे किसानों पर स्थानीय लोगों से पत्थर चलवाये जिससे कई किसान घायल भी हो गए। वहीं पर प्रशासन व विभिन्न अन्य कारणों से अब तक लगभग 40 से अधिक किसान शहीद हो चुके है। ऐसे में कह सकते हैं कि यह आंदोलन किसी एक खास समूह का नहीं है बल्कि एक मंच पर सैकड़ों का संगठन है। इस आंदोलन की व्यापकता दिनोंदिन अभूतपूर्व ढंग से बढ़ती जा रही है। 

     इस आंदोलन की व्यापकता की जिम्मेदारी सत्ताधारी पार्टी का तानाशाही रवैया है जो किसानों के वाजिब मांगो को ध्यान न देकर अपने शक्तियों से उसे डराने धमकाने का प्रयास कर रहा है। जबकि सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में सबको शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करने का अधिकार है। संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ब) के अनुसार नागरिकों को शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के जमा होने का अधिकार है। आज का किसान अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गया है इसका कारण यह है कि अब किसान की पीढ़ियां भी पढ़ लिख रही है। वह होरी के जमाने का किसान नहीं रहा है जो सिपाही की वर्दी देखकर दुबक जाता था। अब उसमे आंख से आंख मिलाने की ताकत आ गई है। और यह क्षमता उसकी जागरूकता के साथ साथ भारतीय लोकतंत्र की ही देन है। कृष्ण किशोर ने लोकतंत्र की अवधारणा में लिखा है - "जितना अशिक्षित, गरीब और अस्वस्थ समाज होगा, उतना ही लोकतांत्रिक प्रशासन का भय सर्वव्यापी होगा। हमारे समाज में भी सरकारी संस्था एक भय पीठ बनकर लोगों को अपने से दूर रखने में महारत रखती है। चुने हुए प्रतिनिधि दिखने में भी लोगों जैसा दिखना बंद हो जाते है। वे अलग ही सत्ता स्वरुप हो जाते है।

     इस प्रकार हम कह सकते है कि किसान आंदोलन जन जन का आंदोलन है जिसके प्रति राष्ट्र की अधिकांश जनता की सहानुभूति है। यह सही है कि सत्ता पक्ष और मीडिया संस्थान जिसके एक एक शब्द को जनता कभी शास्त्र वचनों की तरह सत्य मानती थी के द्वारा इस आंदोलन को निरंतर हतोत्साहित किया गया है। हम तो शुक्रगुजार है इस सोशल मीडिया और आम जनमानस की जागरूकता का जो इस जनांदोलन की दशा एवं दिशा को बरकरार रखने में महती भूमिका अदा कर रहा है। 
    

Post Bottom Ad

Responsive Ads Here

Pages