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सोमवार, 17 दिसंबर 2018

चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को कर्जमाफी जैसे वादे ही न करने दे-अर्थशास्त्रियों ने दिया सुझाव

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन सहित 13 अग्रणी अर्थशास्त्रियों ने देश के लिए जो आदर्श आर्थिक रणनीति सुझाई है, उसे व्यापक राजनीतिक विमर्श में लाया जाना चाहिए। इन विशेषज्ञों की यह महत्वपूर्ण पहल ऐसे समय में सामने आई है जब राजनीति में चर्चा का स्तर काफी छिछला हो गया है। अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों के इन जानकारों के बीच आम सहमति पर आधारित ‘आर्थिक रणनीति’ शीर्षक इस पत्रक से राय यह उभरती है कि देश जिन चुनौतियों से गुजर रहा है, उनमें तीन सबसे महत्वपूर्ण बिंदु हैं- रोजगार, किसान और पर्यावरण।

दुर्भाग्यवश, पर्यावरण को अभी तात्कालिक महत्व के सवालों में नहीं गिना जाता। उसके बारे में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खूब बोला जाता है, लेकिन बड़े आर्थिक फैसले लेते वक्त इस पर सोचने की जरूरत नहीं महसूस की जाती। रणनीति पत्र पर्यावरण को लेकर एक ऐसा स्वतंत्र नियामक गठित करने की जरूरत बताता है, जिसे सिर्फ महाभियोग के जरिए ही पद से हटाया जा सके। मकसद यह कि देश का राजनीतिक नेतृत्व पर्यावरण संबंधी चिंताओं को अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक मनचाहे ढंग से मुल्तवी न कर सके। कृषि संकट की गंभीरता को रेखांकित करते हुए भी यह रणनीति पत्र कर्जमाफी का पुरजोर विरोध करता है। रघुराम राजन की राय है कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को चुनाव में किसान कर्जमाफी जैसे वादे ही न करने दे।
इन आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि कर्ज माफी के बजाय किसानों की आमदनी बढ़ाना और ग्रामीण रोजगार योजना पर जोर देना देश के लिए ज्यादा कारगर विकल्प है। कर्जमाफी जैसे कदम वित्तीय और चालू खाते का घाटा बढ़ा देते हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता के मोर्चे पर समस्याएं बढ़ने लगती हैं। रणनीति पत्र रोजगार की कमी को गंभीरता से रेखांकित करते हुए कहता है कि देश में सालाना एक से सवा करोड़ रोजगार सृजित किए जाने जरूरी हैं, जबकि फिलहाल इसका एक बेहद छोटा हिस्सा ही सृजित हो पा रहा है। इन अर्थशास्त्रियों ने यह भी गौर किया है कि निजी क्षेत्र में बढ़ती असुरक्षा और बदतर होती सेवा शर्तों के चलते ज्यादातर युवा सरकारी नौकरियों में घुसने की कोशिश में लगे रहते हैं और इस क्रम में अपने कई साल बर्बाद कर देते हैं। रणनीति पत्र बड़े पैमाने पर अर्ध-कुशल नौकरियों की गुंजाइश बनाने, वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और तटीय क्षेत्रों से दूर के इलाकों में रोजगार उपलब्ध कराने की जरूरत को अलग से रेखांकित करता है।

इस दस्तावेज की सबसे खास बात यह है कि यह आर्थिक विकास को महज आंकड़ों में नहीं देखता। इसका जोर आर्थिक विकास से सामान्य लोगों को मिलने वाले ठोस फायदों पर है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि इसे कुछ अर्थशास्त्रियों की निजी राय के रूप में लेने के बजाय राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन अपनी अंदरूनी बहस का मुद्दा बनाएं।

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