शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

सरकार की उदासीनता से हाशिये पर ग्राम पंचायत और ग्राम प्रधान का अस्तित्व -सौरभ वीपी वर्मा

     समीक्षा
सौरभ वीपी वर्मा

बस्ती- पंचायती राज व्यवस्था भारत के ग्रामीण इलाकों का वह रूप है जो भारत की आत्मा को स्वस्थ्य एवं व्यवस्थित करने में मदद करती है , जिसका मकसद ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाना और जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करना है लेकिन आजादी का अमृत महोत्सव मनाने वाली सरकार की उदासीनता के चलते ग्राम पंचायत और ग्राम प्रधान दोनों का अस्तित्व हाशिये पर है।
ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की बात करें तो सबसे ज्यादा काम ग्राम पंचायत के माध्यम से ही संभव है । इसके पहले भी ग्राम निधि से गांवों में विकास की बुनियादी ढांचा को मजबूत करने के लिए बहुत सारे काम हुए हैं जिससे ग्रामीणों के जीवन यात्रा सुगम हुई है लेकिन वर्तमान समय में ग्राम पंचायतों के लिए बजट सत्र में भी किसी प्रगतिशील कार्यों का विस्तार और घोषणा न करना सरकार की उदासीनता साफ- साफ दिखाई पड़ती है।

आज गांव के लोगों को सांसद विधायक नही बल्कि विकास की सबसे ज्यादा अपेक्षा प्रधान से रहती है क्योंकि नाली निर्माण ,खड़ंजा ,सीसी रोड़ , पेय जल ,प्रकाश , सफाई आदि की व्यवस्था सबसे ज्यादा ग्राम पंचायत से ही संभव है लेकिन देखने को मिल रहा है कि अधिकतर ग्राम पंचायतों में धन की कमी की वजह से कई सारे विकास कार्यों पर स्थिरता बनी हुई है। 

ग्राम पंचायत को मिलने वाले छोटे छोटे मदों से ग्राम पंचायत में प्रधान , पंचायत सहायक , सामुदायिक शौचालय एवं अन्य लोगों को मानदेय भी देना होता है  जिसकी वजह से प्रधान चाह कर भी अपने स्तर से ग्राम पंचायत के विकास कार्यों में बुनियादी सुविधाओं का जाल नही बिछा पाता है । मानदेय देने के लिए सरकार द्वारा यदि अलग से बजट की व्यवस्था की जाए तो बचे हुए पैसे से ग्रामीण इलाकों के विकास कार्यों में तेजी आ सकती है , लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बड़े पैमाने पर सामुदायिक शौचालय और पंचायत भवन का निर्माण कराने वाली सरकार ने उसके रख रखाव के लिए अतिरिक्त बजट का निर्माण नही कर पाई।

प्रशासनिक निरंकुशता और कमीशनखोरी भी एक चुनौती

ग्राम प्रधान एक तो बजट कम होने की समस्या से झेल रहे हैं दूसरी तरफ प्रशासन की निरंकुशता और हर फाइल में कमीशनखोरी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है । किसी भी ग्राम पंचायत में ग्रामनिधि से एक लाख रुपये के काम को स्वीकृति कराने के लिए कम से कम 15 हजार रुपया कमीशन देना पड़ता है वहीं मनरेगा के कार्यों में यह कमीशन 25 प्रतिशत तक हो जाता है यानी एक लाख के काम में 25 हजार रुपया विकास खण्ड कार्यालय पर बैठे लोगों की जेब में जाना है ,ऐसी स्थिति में धन के एक बड़े पैमाने पर बंदरबांट हो रहा है।

सच तो यह है कि यदि सरकार को ग्राम पंचायत की अवधारणा और गांधी जी के ग्रामीण विकास के सपने को पूरा करना है तो उसके लिए एक स्वस्थ बजट का निर्माण करना होगा जिसमें सबसे पहले धन की कमी को दूर करना है दूसरा स्वीकृति के नाम पर प्रधान का हो रहा शोषण बंद करना होगा तब जाकर ग्राम पंचायत और ग्राम प्रधान का अस्तित्व दिखाई पड़ेगा अन्यथा जिस ग्रामीण भारत की दुर्दशा वर्षों से देखी जा रही है वह बरकरार रहेगा।


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