बस्ती- सल्टौआ में भाजयुमो की तरफ से आयोजित हुआ नमो नवमतदाता सम्मेलन
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अयोध्या- बरसों बाद राम भक्तों का सपना सच हो गया है. अयोध्या के राम मंदिर (Ram Mandir) में गर्भगृह में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो गई. अब राम भक्त, भगवान राम की जन्मभूमि पर ही उनका पूजन कर पाएंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Pm Modi) की सरकार ने अरसे पुराना ये सपना पूरा कर दिखाया. ऐसे खास समय में अयोध्या के इतिहास (History of Ayodhya) को जानना भी जरूरी है. आइए आपको बताते हैं राम जन्मभूमि, अयोध्या, राम मंदिर और अवध से जुड़ा जरूरी इतिहास...
1528: बाबरी मस्जिद की उत्पत्ति
यह किस्सा 1528 की है...जब मुगल शासक बाबर भारत आया. 2 साल बाद बाबर के सेनापति मीरबाकी ने अयोध्या में एक मस्जिद का निर्माण करवाया. ऐसा कहा जाता है कि यह मस्जिद वहीं बनाया गया, जहां भगवान राम का जन्म हुआ था. लेकिन मुगलों और नवाबों के शासनकाल में हिंदू मुखर नहीं हो पाए. 19 वीं सदी में जब मुगल शासक की पकड़ भारत में कमजोर हुई तो अंग्रेजी हुकूमत प्रभावी था. इसके कुछ दिनों बाद भगवान राम के जन्मस्थल को वापस पाने की लड़ाई शुरू हुई.
1751: जब निहंग सिखों ने मस्जिद में लिखा था श्रीराम का नाम
जानकार बताते हैं कि सिखों के इतिहास को खगालने पर पता चलता है कि अयोध्या (Ayodhya) में सबसे पहले बाबरी मस्जिद में विद्रोहियों के घुसने की जो घटना घटी थी वो हिंदुओं के द्वारा नहीं घटी थी बल्कि सिखों ने की थीं. श्रीराम जन्म स्थान के करीब ही अयोध्या में एक गुरुद्वारा है जिसका नाम है गुरुद्वारा ब्रह्म कुंड. इसी गुरुद्वारे में सिखों के गुरु, गुरु गोबिंद सिंह भी आकर ठहरे थे. यह घटना आज से 165 साल पहले की है. इतिहास के उस काल में निहंग सिखों (Nihang Sikh) ने बाबरी मस्जिद में घुसकर जगह-जगह पर श्रीराम का नाम लिखा था और यह साबित करने की कोशिश की थी कि यह श्रीराम के जन्म का स्थान है. इसके बारे में ना सिर्फ सिख ग्रंथों में जिक्र है बल्कि इतिहासकार भी इस बारे में जानकारी देते हैं.
1885: पहला कानूनी दावा
निर्मोही अखाड़े के पुजारी रघुबर दास ने 1885 में पहला कानूनी मुकदमा दायर किया, जिसमें मस्जिद के बाहरी प्रांगण में एक मंदिर बनाने की अनुमति मांगी गई. हालांकि, खारिज कर दिया गया, इसने एक कानूनी मिसाल कायम की और विवाद को जीवित रखा. तब तक, शहर में ब्रिटिश प्रशासन ने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए पूजा के अलग-अलग क्षेत्रों को चिह्नित करते हुए स्थल के चारों ओर एक बाड़ लगा दी, और यह लगभग 90 वर्षों तक उसी तरह खड़ा रहा.
1949: विवादित ढांचे के अंदर रखी गई 'राम लला' की मूर्तियां
22 दिसंबर, 1949 की रात को बाबरी मस्जिद के अंदर 'राम लल्ला' की मूर्तियां रखी गईं, जिससे स्थल के आसपास धार्मिक भावनाएं तीव्र हो गईं और इसके स्वामित्व पर कानूनी लड़ाई शुरू हो गई. हिंदुओं ने दावा किया कि मूर्तियां मस्जिद के अंदर "प्रकट" हुईं. इस साल पहली बार संपत्ति विवाद अदालत में गया.
1950-1959: कानूनी मुकदमे बढ़े
अगले दशक में कानूनी मुकदमों में वृद्धि देखी गई, जिसमें निर्मोही अखाड़ा ने मूर्तियों की पूजा करने का अधिकार मांगा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने साइट पर कब्ज़ा करने की मांग की और यह विवाद गहराता गया.
1986-1989: बाबरी मस्जिद के ताले खोले गए
1986 में केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के दौरान, बाबरी मस्जिद के ताले खोल दिए गए, जिससे हिंदुओं को अंदर पूजा करने की अनुमति मिल गई. इस निर्णय ने तनाव को और बढ़ा दिया. विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने 1990 में राम मंदिर के निर्माण के लिए एक समय सीमा तय की, जिससे मंदिर की मांग बढ़ गई. इस अवधि में भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा की शुरुआत की थी. वीएचपी और भाजपा ने राम जन्मभूमि की 'मुक्ति' के लिए समर्थन जुटाया.
1990: रथ यात्रा और विध्वंस का असफल प्रयास
मंडल आयोग के कार्यान्वयन और बढ़ते राजनीतिक तनाव के बीच, एल.के. 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा का उद्देश्य मंदिर के लिए समर्थन जुटाना था. मस्जिद को ध्वस्त करने के असफल प्रयास के बावजूद, यह आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था.
1992: बाबरी मस्जिद विध्वंस
वर्ष 1992 बाबरी मस्जिद का विध्वंस...सुप्रीम कोर्ट के आश्वासन के बावजूद, हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा मस्जिद को ढहा दिया गया. उस प्रलयंकारी घटना और उसके बाद हुए दंगों ने भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
1993-1994: विध्वंस के बाद दंगे
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, पूरे भारत में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिसके परिणामस्वरूप जान-माल का नुकसान हुआ. पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा विवादित क्षेत्र के अधिग्रहण को डॉ. इस्माइल फारुकी ने चुनौती दी, जिसके बाद 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया. फैसले ने अधिग्रहण को बरकरार रखा, जिससे मामले में राज्य की भागीदारी और मजबूत हो गई.
2002-2003: एएसआई की खुदाई और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सुनवाई
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2002 में मामले की सुनवाई शुरू की, और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने मस्जिद के नीचे एक हिंदू मंदिर के सबूत का दावा करते हुए खुदाई की और यह कानूनी लड़ाई जारी रही.
2009-10: लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट
16 वर्षों में 399 बैठकों के बाद, लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस के जटिल विवरणों का खुलासा किया गया और प्रमुख नेताओं को शामिल किया गया. लिब्रहान आयोग ने अपनी जांच शुरू करने के लगभग 17 साल बाद जून 2009 को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी और अन्य भाजपा नेताओं का नाम शामिल था.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले में भूमि को हिंदुओं, मुसलमानों और निर्मोही अखाड़े के बीच विभाजित करके विवाद को सुलझाने का प्रयास किया गया. हालांकि, निर्णय को अपील और आगे की कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा.
2019: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
2019 में एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के निर्माण के लिए पूरी विवादित भूमि हिंदुओं को दे दी और मस्जिद के निर्माण के लिए एक वैकल्पिक स्थल आवंटित किया.
2020: राम मंदिर शिलान्यास
PM नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त, 2020 को भव्य राम मंदिर की आधारशिला रखी. भूमि पूजन और श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के गठन ने राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया, जिससे एक लंबी कानूनी गाथा का अंत हुआ.
2024: पीएम मोदी ने राम मंदिर का उद्घाटन किया
22 जनवरी, 2024 को अयोध्या के राममंदिर में गर्भगृह में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हुई. इस अवसर पर गर्भगृह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद रहे.
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रिपोर्ट में कहा गया है, ‘भारत में बहुआयामी गरीबी 2013-14 में 29.17 फीसदी से घटकर 2022-23 में 11.28 फीसदी हो गई. इस अवधि के दौरान लगभग 24.82 करोड़ लोग इस श्रेणी से बाहर आए हैं. राज्य स्तर पर उत्तर प्रदेश 5.94 करोड़ लोगों के गरीबी से बाहर निकलने के साथ सूची में शीर्ष पर है, इसके बाद बिहार (3.77 करोड़) और मध्य प्रदेश (2.30 करोड़) का नंबर आता है.’
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सरकार की कुछ पहलों – जैसे पोषण अभियान, एनीमिया मुक्त भारत, उज्ज्वला और अन्य – ने अभाव के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करने में ‘महत्वपूर्ण भूमिका’ निभाई है.
इसमें यह भी कहा गया है कि भारत 2030 से काफी पहले सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 1.2 (बहुआयामी गरीबी को कम से कम आधा कम करना) हासिल कर सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकारी थिंक-टैंक की रिपोर्ट के बारे में ट्वीट करते हुए कहा, ‘बहुत ही उत्साहजनक, (यह) समावेशी विकास को आगे बढ़ाने और हमारी अर्थव्यवस्था में परिवर्तनकारी बदलावों पर ध्यान केंद्रित करने के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. हम सर्वांगीण विकास और प्रत्येक भारतीय के लिए समृद्ध भविष्य सुनिश्चित करने की दिशा में काम करना जारी रखेंगे
हालांकि, द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार विशेषज्ञों ने इन दावों को करने के लिए बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के उपयोग पर कुछ गंभीर संदेह जताए हैं.
सेवानिवृत्त भारतीय आर्थिक सेवा अधिकारी केएल दत्ता ने अखबार को बताया, ‘एमपीआई हमें केवल उन लोगों का प्रतिशत बताता है जिनकी सरकार द्वारा प्रदान की गई या उनके लिए उपलब्ध कुछ सुविधाओं तक पहुंच नहीं है.’
उन्होंने कहा, ‘इसका उपयोग योजनाकारों और नीति निर्माताओं द्वारा लक्ष्य निर्धारित करने के लिए नहीं किया जाता है, न ही इसका उपयोग गरीबी कम करने की योजना बनाने के लिए इनपुट के रूप में किया जाता है. संक्षेप में, एमपीआई गरीबी का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. सरकार एमपीआई आकलन को गरीबी अनुपात के विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है. यह ठीक नहीं है.’
पटना के एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट के पूर्व निदेशक अर्थशास्त्री सुनील राय ने कहा, ‘कोई राज्य सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) कैसे हासिल कर सकता है जब उसकी सरकार को अपनी दो-तिहाई से अधिक आबादी का सर्वाइवल (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के माध्यम से) सुनिश्चित करना पड़ता हो. सरकार यह मुफ्त सुविधा इसलिए दे रही है क्योंकि लोग आत्मनिर्भर नहीं हैं.’
अर्थशास्त्री और अधिकार कार्यकर्ता ज्यां द्रेज ने भी एमपीआई के उपयोग को लेकर संदेह व्यक्त किया. उन्होंने द टेलीग्राफ को बताया, ‘एमपीआई में अल्पकालिक क्रय शक्ति का कोई संकेतक शामिल नहीं है. इसलिए हमें अन्य जानकारी, जिसमें वास्तविक मजदूरी में धीमी वृद्धि के हालिया प्रमाण शामिल हैं, के साथ एमपीआई डेटा को देखना चाहिए.’
उन्होंने जोड़ा कि एमपीआई डेटा लंबे समय से लंबित उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के गरीबी अनुमानों का पूरक हो सकता है, लेकिन उनका विकल्प नहीं.
अर्थशास्त्री और कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति असीस बनर्जी ने कहा कि जहां एमपीआई का उपयोग गरीबी मापने के लिए नहीं किया जा सकता है, वहीं यह विशेष सरकार कम एमपीआई का भी श्रेय नहीं ले सकती है.
उन्होंने अखबार को बताया, ‘यह (एमपीआई) लंबे समय से गिर रहा है, न कि सिर्फ पिछले नौ सालों से. अधिकतर अध्ययन दिखाते हैं कि इसका श्रेय 2014 में केंद्र में सरकार बदलने से पहले शुरू किए गए उपायों को जाता है.’
उन्होंने यह भी कहा, ‘…यह बड़ा रहस्य है कि अगर गरीबी में इतनी प्रभावशाली कमी आई है तो हालिया समय में वैश्विक भुखमरी सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में भारत के प्रदर्शन में गिरावट क्यों देखी गई है?’
बता दें कि 12 अक्टूबर 2023 को दो यूरोपीय एजेंसियों द्वारा जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट में भारत 125 देशों में 111वें स्थान पर था. भारत से नीचे बस अफगानिस्तान, हैती, सोमालिया, कांगो और सूडान जैसे अभावग्रस्त देश थे.
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उत्तर प्रदेश में सर्दी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. ऐसा पहली बार हुआ है जब न्यूनतम तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक रिकॉर्ड किया गया. यह न्यूनतम तापमान ताज नगरी आगरा में रिकॉर्ड किया गया है, जबकि मेरठ में न्यूनतम तापमान 4 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड हुआ. अलीगढ़ में भी चार डिग्री सेल्सियस न्यूनतम तापमान रिकॉर्ड हुआ है. जबकि बरेली, शाहजहांपुर, मुजफ्फरनगर और लखनऊ में न्यूनतम तापमान 5 से 6 डिग्री सेल्सियस तक रिकॉर्ड हुआ है. लखनऊ मौसम केंद्र की ओर से घने कोहरे की चेतावनी जारी की गई है. साथ ही अलर्ट जारी किया गया है कि तापमान अभी और नीचे जा सकता है.
यही नहीं पूरा प्रदेश शीत लहर की चपेट में है. शीत लहर लगातार बढ़ने की वजह से भी तापमान में गिरावट हो रही है. लखनऊ मौसम केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक मोहम्मद दानिश ने बताया कि प्रदेश में न्यूनतम तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक रिकॉर्ड हुआ है, जबकि अधिकतम तापमान लगातार 11 डिग्री सेल्सियस से लेकर 15 डिग्री सेल्सियस के बीच ही चल रहा है. लखनऊ में भी यही हाल है. सर्दी से अभी कोई राहत मिलती हुई नजर नहीं आ रही है. बल्कि आने वाले एक से दो दिनों में सर्दी और बढ़ेगी. उसके बाद तापमान में थोड़े बदलाव हो सकते हैं. लेकिन अभी मौसम केंद्र की मॉनिटरिंग जारी है.
लखनऊ मौसम केंद्र की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक लखनऊ का अधिकतम तापमान 17 डिग्री सेल्सियस जबकि न्यूनतम तापमान 6 डिग्री सेल्सियस रहेगा. वहीं बाराबंकी, हरदोई, कानपुर शहर, कानपुर देहात, लखीमपुर खीरी, गोरखपुर और वाराणसी समेत बलिया चुर्क, बहराइच और प्रयागराज में न्यूनतम तापमान 7 डिग्री सेल्सियस से लेकर 8 डिग्री सेल्सियस के बीच ही रहेगा जबकि इन जिलों का अधिकतम तापमान 14 डिग्री सेल्सियस से लेकर 15 डिग्री सेल्सियस के बीच रहने का पूर्वानुमान है. फतेहपुर, बांदा, सुल्तानपुर, फैजाबाद, फुरसतगंज, गाजीपुर, फतेहगढ़, बस्ती, झांसी, उरई और हमीरपुर में न्यूनतम तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से लेकर 5 डिग्री सेल्सियस के बीच रहने का पूर्वानुमान है, वहीं अधिकतम तापमान 15 डिग्री सेल्सियस से लेकर 16 डिग्री सेल्सियस के बीच रहेगा.
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नई दिल्ली। जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय ने गाजा युद्ध में अमेरिकी भूमिका का विरोध करते हुए अपना मैग्सेसे पुरस्कार लौटाने का फैसला किया है। इसके साथ ही उन्होंने अमेरिका में हासिल अपनी डिग्रियों को भी वापस करने का फैसला किया है। संदीप पांडेय को 2002 में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
संदीप पांडेय ने एक बयान जारी कर कहा है कि “2002 में जब मैं मैग्सेसे पुरस्कार लेने मनीला गया तो वहां एक छोटा सा विवाद खड़ा हुआ। फिलीपींस की राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त करने के अगले दिन मुझे मनीला स्थित अमरीकी दूतावास पर अमरीका के इराक पर होने वाले सम्भावित हमले के खिलाफ एक प्रदर्शन में शामिल होना था। तब मैग्सेसे फाउंडेशन की अध्यक्षा ने मुझे वहां जाने से यह कहकर रोकने की कोशिश की कि मेरे अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन में शामिल होने से फाउंडेशन की बदनामी होगी।मैंने उन्हें याद दिलाया कि जिन चार कारणों से उन्होंने मुझे मैग्सेसे पुरस्कार दिया था उसमें एक भारत के नाभिकीय परीक्षण के खिलाफ वैश्विक नाभिकीय निशस्त्रीकरण के उद्देश्य से पोकरण से सारनाथ तक निकाली गई पदयात्रा थी। यानी युद्ध के खिलाफ मेरी भूमिका से वे पूर्व-परिचित थीं। मैंने उन्हें बताया कि इत्तेफाक से जिस दिन मुझे पुरस्कार मिला उसी दिन मनीला के विश्ववि़द्यालय में हुए एक शांति सम्मेलन में अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया था और मैं इस सम्मेलन में भी आमंत्रित था।”
उन्होंने कहा कि “मेरे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के बाद मनीला के एक अखबार ने अपने सम्पादकीय में मुझे यह चुनौती दी कि यदि मैं उतना ही सिद्धांतवादी हूं जितना कि मैं चाहता हूं कि वे मानें तो मैं भारत लौटने से पहले मैग्सेसे पुरस्कार लौटा कर जाऊं। इससे मेरा काम आसान हो गया।
मैंने हवाई अड्डे से पुरस्कार के साथ मिली धनराशि लौटा दी और मैग्सेसे फाउंडेशन की अध्यक्षा को एक पत्र लिखकर कहा कि फिलहाल मैं पुरस्कार अपने पास रख रहा हूं क्योंकि पुरस्कार फिलीपींस के एक लोकप्रिय भूतपूर्व राष्ट्रपति के नाम पर है और भारत में यह ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को मिल चुका है, जैसे जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे व बाबा आम्टे, जो मेरे आदर्श हैं।”
संदीप पांडेय ने कहा कि उस पत्र में मैंने यह भी लिखा कि जिस दिन उन्हें लगे कि मेरी वजह से मैग्सेसे फाउंडेशन की ज्यादा बदनामी हो रही है तो मैं पुरस्कार भी लौटा दूंगा
लेकिन अब मुझे लगता है कि समय आ गया है। मैग्सेसे पुरस्कार रॉकेफेलर फाउंडेशन व मुझे जिस श्रेणी में पुरस्कार मिला वह फोर्ड फाउंडेशन द्वारा प्रायोजित है, जो दोनों अमरीकी संस्थाएं हैं। अमरीका जिस तरह से वर्तमान में फिलिस्तीन के खिलाफ युद्ध में बेशर्मी से खुलकर इजराइल का साथ दे रहा है और अभी भी इजराइल को हथियार बेच रहा है, अब मेरे लिए असहनीय हो गया है कि मैं यह पुरस्कार रखूं।
इसलिए मैंने अब मैग्सेसे पुरस्कार भी लौटाने का फैसला लिया है। मैं फिलीपींस के लोगों से माफी चाहता हूं क्योंकि भूतपूर्व राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे का नाम इस पुरस्कार के साथ जुड़ा हुआ है। किंतु मेरा विरोध सिर्फ पुरस्कार के अमरीकी जुड़ाव वाले पक्ष से है।”
उन्होंने कहा कि “जैसे मैं मैग्सेसे पुरस्कार वापस कर रहा हूं तो मुझे लगता है कि मुझे अमरीका से प्राप्त डिग्रियां भी वापस कर देनी चाहिए। मैं न्यूयॉर्क राज्य स्थित सिरैक्यूस विश्वविद्यालय से प्राप्त मैन्यूफैक्चरिंग व कम्प्यूटर अभियांत्रिकी की व कैलिफोर्निया के विश्वविद्यालय, बर्कले से प्राप्त मेकेनिकल अभियांत्रिकी की डिग्रियां भी वापस करने का निर्णय ले रहा हूं।
बल्कि यह मुझे 1991 में बर्कले के परिसर पर ही, जब राष्ट्रपति वरिष्ठ बुश ने इराक पर हमला कर दिया था, युद्ध विरोधी प्रदर्शन में पता चला कि अमरीकी विश्वविद्यालयों, खासकर प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विभागों, में हथियारों से जुड़े शोध कार्य होते हैं। युद्ध विरोधी प्रदर्शन में भाग लेने वाले एक इलेक्ट्रिकल अभियांत्रिकी के प्रोफेसर प्रवीण वरैया, जो रक्षा विभाग से शोध हेतु कोई पैसा नहीं लेते थे, से पता चला कि उनका शोध क्षेत्र कंट्रोल सिस्टम्स्, जो मेरा भी शोध क्षेत्र था, का जुड़ाव रक्षा कार्यक्रम से है।
यानी अनजाने में मैं अमरीकी युद्ध तंत्र का हिस्सा बन गया था। मेरा अपने शोध क्षेत्र से पूरी तरह से मोहभंग हो गया और जब मैंने भारत लौटकर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में पढ़ाना शुरू किया तो अपना शोध क्षेत्र बदल लिया।”
संदीप पांडेय ने अपने पत्र में कहा कि “यहां मैं फिर यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा अमरीकी जनता या अमरीका देश से भी कोई विरोध नहीं है। बल्कि मैं समझता हूं कि अमरीका में मानवाधिकारों के उच्च आदर्शों का पालन होता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी वहां उच्च कोटि की है। किंतु इन उच्च आदर्शों का पालन सिर्फ अमरीका के अंदर ही होता है। अमरीका के बाहर, खासकर तीसरी दुनिया के देशों में अमरीका को इनकी कोई चिंता नहीं है। यदि वह न्याय के साथ खड़ा है तो किसी भी युद्ध में उसे उत्पीड़ित के पक्ष में भूमिका लेनी चाहिए।
रूस के यूक्रेन पर हमले में उसने सही भूमिका ली है। किंतु न जाने वह क्यों फिलिस्तीनियों के उत्पीड़न और तबाही की ओर आंख मूंदे हुए है और इजराइल की सेना द्वारा किए जा रहे जघन्य अपराधों को भी नजरअंदाज करने को तैयार है। यदि यह कोई और देश कर रहा होता तो अभी तक अमरीका, जैसा उसने दुनिया के अन्य देशों के साथ मिलकर रंगभेद की नीति लागू करने वाले दक्षिण अफ्रीका के साथ किया था, कठोर प्रतिबंध लगा चुका होता।”
संदीप पांडेय ने अपने बयान में कहा कि “मैं यह कड़ा निर्णय इसलिए ले रहा हूं कि मैं मानता हूं कि यह दुनिया की राय के खिलाफ जाकर अमरीका के बढ़ावा देने के कारण ही इजराइल फिलिस्तीनियों के साथ बर्बरता कर रहा है। चाहिए तो यह था कि अमरीका एक तटस्थ भूमिका लेकर इजराइल और फिलिस्तीन के बीच शांति हेतु मध्यस्थता करता, जैसा उसने पहले किया भी हुआ है।
एक सम्प्रभु स्वतंत्र फिलिस्तीन, जिसको संयुक्त राष्ट्र संघ एक पूर्ण देश का दर्जा दे, ही इजराइल-फिलिस्तीन विवाद का हल है। किंतु यह विचित्र बात है कि अमरीका, जिसने अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए, अफगानिस्तान, जिसका क्षेत्रफल फिलिस्तीन से बहुत बड़ा है, को चांदी की थाली में सजाकर तालिबान को सौंप दिया, यह जानते हुए कि वह आम अफगान, खासकर औरतों, की नागरिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल रहा है।”
संदीप पांडेय ने कहा कि “अमेरिका इजराइल की इस बात को दोहराता है कि हमास एक आतंकवादी संगठन है। वह इस बात को नजरअंदाज करता है कि हमास ने फिलिस्तीन में चुनाव जीत कर गज़ा में सरकार बनाई है जबकि तालिबान ने कोई चुनाव नहीं लड़ा था। मुझे लगता है कि अमरीका की दोगली नीति पर सवाल उठाना चाहिए
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