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मंगलवार, 24 मई 2022

बस्ती के आईएएस अधिकारी को बाँदा के लोगों ने कहा DYNAMIC डी.एम.

नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र.
8400088017

 प्रशासन का हीरा 

खुदा हमको इतनी खुदाई न दें।
कि हमें अपनों के सिवाय और कुछ दिखाई न दें।
गालिब का शेर आईएएस अधिकारी डा. हीरालाल के व्यक्तित्व पर पूरी तरह से लागू  होता है। वर्तमान पूंजीवादी युग में जब चारों तरफ धनलोलुपता, अनैतिकता तथा स्वार्थपरता का बोलबाला है तथा भौतिकता के इस अंधी दौड़ में नेता, अधिकारी तथा आमजन तक भी शामिल है। आये दिन विभिन्न प्रशासनिक अधिकारियों के संदर्भ में यह खबर मिलती है कि वे व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं कि पूर्ति में इस कदर लिप्त जाते है कि उन्हें अपने पद तथा समाज, जन और देश के प्रति दायित्व का बोध भी नही रह जाता है । विलासिता की असीम चाहत तथा पद का अंह उन्हें जेल की सलाखों में कैद कर देता है। उसी दौर में एक प्रशासक डा. हीरालाल है जिन्होंने अपने प्रशासनिक दायित्वबोध, नैतिकता, ईमानदारी, समाज और जन के प्रति समर्पण की भावना और कार्य को सुनियोजित ढंग से करने की प्रवृत्ति, उन्हें पद से नहीं बल्कि कर्म से प्रतिष्ठा प्रदान करती है। यह प्रतिष्ठा जनता के बीच रहकर कार्य करने, अपने पद के बनावटीपन आवरण से दूर रहकर तथा आमजन के सुझावों और बातों को तरजीह देने से दिन प्रतिदिन स्वयमेव बढ़ती चली जाती है। 

 जैसा कि कुमुद वर्मा ने डा. हीरालाल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित पुस्तक में साझा करते हुए लिखा है कि जनता और जिला प्रशासन के बीच दूरी होती है। आम जनता हमारे आने से डरती और हिचकती है। सरकारी मशीनरी को जनता को जनता के बीच जाकर, रहकर कार्य करना चाहिए। मैनें अधिकांश बैठकें जमीन पर दरी बिछाकर की। फूलमाला, ताम-झाम, बनावटी-दिखावटी गतिविधियों को दूर रखा। जनता से ऐसा मिला, जैसे कि मैं उनके परिवार का सदस्य हूं। मुलाकाती से एक मिनट में पारिवारिक और आत्मीय हो जाना मेरी कला है। जनता से जुड़ना हमारा मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। 
                           डॉ. हीरालाल 
  पद, पैसा तथा प्रतिष्ठा जहाँ व्यक्ति के मन में अहं के भाव सृजन करती है वहीं पर आमतौर पर देखा जाता है कि प्रशासनिक अधिकारी अपने अधिकार और पद के आधार पर आम नागरिकों में भय का माहौल पैदा करते है। इस भय से लोग उनके सामने मामूली से कार्यों के लिए करबद्ध होकर गिड़गिड़ाते है।  जहाँ व्यक्ति कि इस लाचारी भरी गिड़गिड़ाहट उन्हें अपने ओहदे के अहं को संतुष्टि मिलती है वहीं दूसरी ओर  मुँह खोलने के एवज में आर्थिक लाभ भी बहुधा मिल जाते है। आमजन को अधिकारियों द्वारा गिरी निगाह से देखने की प्रवृत्ति अक्सर मिल जाती है। पर इन्होंने अनपढ़ तथा गँवारों को भी सम्मान देने में कोई कोताही नहीं बरती है। उनका मत है कि गाँव की आम जनता, जो अनपढ़ है इसे कम नहीं आकना चाहिए। इनके अनुभव, संतोष, दिलेरी, त्याग और देशी ज्ञान हमसे कहीं ज्यादा होता है। यह इनकी ताकत है, जिसे हम नहीं समझते और न ही उसका उपयोग करते है। इन्हें कम और कमजोर आंकने और इग्नोर करने कि गलती करते है। ऐसा नहीं करना चाहिए। 
                              नीरज वर्मा
 सामान्यतया प्रशासनिक अधिकारी अपने ज्ञान और इल्म पर बहुत मगरुर रहते है। उन्हें ऐसा लगता है कि अब जीवन में सीखने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। उन्होंने देश कि सबसे प्रतिष्ठित सेवा कि परीक्षा उत्तीर्ण किया है जोकि मामूली बात नहीं है। न जाने कितने है जिनकी उम्र गुजर जाती है प्री परीक्षा में भी नहीं सफल हो पाते है। सचमुच यह इम्तहान सख्त होता है पर इसका यह नहीं है कि आप सर्वज्ञ है। पुस्तकीय ज्ञान कि अपेक्षा जो अनुभव से समझ विकसित होती है वह कहीं श्रेष्ठ है। पुस्तकीय ज्ञान हमें परीक्षा में अवश्य सफलता दिला सकता है पर अनुभवों से अर्जित इल्म हमारे व्यावहारिक कार्यों कि कुशलता में वृद्धि कर देती है। हर समस्या का समाधान पुस्तकों से नहीं मिल पाता है। कुछ समाधान हमें समाज से भी मिल जाया करते है। प्रशासन में इनके सफलता का राज ही यह है कि इन्होंने छोटे-बड़े, पढ़े-अनपढ़, कढ़े सबसे मिले। लगातार इनसे सीखा। सीखकर वहीं लागू किया। जिससे सीखा उसका प्रचार भी किया ताकि लोग आगे भी हमे सिखाते और बताते रहें। 

 सबसे बड़ी बात यह है कि इन्होंने अपने दायित्वों का निर्वाहन एक प्रशासक कि हैसियत से नहीं बल्कि सेवक के रुप में किया। जहां पर रहे वहाँ कि स्थानीय वेशभूषा, भोजन, संस्कृति तथा भाषा को अपनाने में इन्होंने कभी हिचक तथा हीनता नहीं महसूस किया। उनके व्यक्तित्व में यह सहजता, सरलता, त्याग, ईमानदारी, समर्पण, दूसरों के प्रति कृतज्ञता तथा सभी के साथ संवेदनशीलता का व्यवहार एकाएक नहीं आ गया। व्यक्ति के व्यक्तित्व मे जहाँ पर कुछ गुण अर्जित होते है वहीं पर अधिकांश गुण उसे परिवार और बचपन के माहौल से मिलते है। जिससे उसके मूल व्यक्तित्व का निर्माण होता है। देखा जाय तो इनका बचपन गँवई माहौल में व्यतित हुआ। बस्ती जनपद जिसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कभी उजाड़ की संज्ञा दिया था के एक सामान्य कृषक परिवार में जन्मे हीरालाल ने अपने लगन तथा मेहनत के बल पर भले ही देश कि प्रतिष्ठित सेवा में चले गये है। पर जन्मभूमि कि वह सोंधी खुश्बू, प्रेम तथा भाईचारा इन्हें आज भी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद अपने गाँव में खींच लाती है। प्रशासनिक सेवा कि वह चकाचौंध तथा शोहरतभरी जिंदगी के बजाय इनका अपने गाँव के ठेठपन में ज्यादा मन रमता है। तभी तो अक्सर अपने गाँव में इनका आना- जाना और सभी से मिल बैठकर बतियाना लगा रहता है।

 बस्ती जनपद का इनका गाँव बागडीह सत्तर-अस्सी दशक के पूर्वांचल के  उन समस्त गाँवों का प्रतिनिधित्व करता है जो प्रायः मूलभू सुविधाओं सड़क, बिजली तथा पानी से वंचित थे। और गाँवों में चारों तरफ अशिक्षा का अंधकार व्याप्त था। जैसा कि पुस्तक में उल्लिखित है कि मेरा गाँव बस्ती से मेहदावल जाने वाली रोड पर है। इसे बस्ती-मेहदावल रोड के नाम से जाना जाता है। यह रोड पतली, उबड़-खाबड़ थी। सड़क में काफी गड्ढे थे। गाड़ी धीरे-धीरे चलानी पड़ती थी। सड़क से गाँव का सम्पर्क कच्ची मिट्टी से बना था। बरसात में मिट्टी फूल जाती थी। आना-जाना बहुत मुश्किल हो जाता था। गाँव में चार पुरवा है। सभी लोग किसानी पेशे से जुड़े हैं। गाँव के लोगों की कोई सोच नहीं थी और न ही उनका कोई सपना था। गाँव में मेरे पिता जोकि पशुकंपाउडर थे सहित तीन लोग नौकरीवाले थे और पूरा गाँव किसान। अधिकांश घर छप्पर के थे। कुछ खपरैल के। पक्का मकान नहीं था ,गाँव पिछड़ा था ।

 सचमुच उस दौर में ग्रामीण समाज में पिछड़ापन विद्यमान था। चहुंओर अभावों का मंजर था। पर हां लोगों में एकदूसरे के प्रति प्रीति तथा सहयोग देखने लायक थी। लोग एकदूसरे के सुख-दुख में सहानुभूति नहीं बल्कि समानुभूति रखते थे। पुस्तक में वर्णित है कि गाँव में छप्पर के मकान बनाने में सभी सहयोग करते थे। गाँव कि शादी में सभी सहयोग करते थे। गाँव के आपस में प्यार मोहब्बत देखने लायक होती थी। गाँव के किसी के घर में आग लग गई तो पूरा गाँव आग बुझाने टूट पड़ता था। गा़ँव में किसी कि मृत्यु होने पर पूरे गाँव में दुख फैल जाता था। गाँव का माहौल आपसी सौहार्द्र और सहयोग से भरपूर था। गाँव का ऐसा चित्रण मैथिली शरण गुप्त कि कविता  अहा ग्राम्य जीवन भी क्या कि याद दिलाता है जिसमें लिखा है-
अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे,
थोड़े में निर्वाह यहाँ है, ऐसी सुविधा और कहाँ है?
यहां शहर की बात नहीं है, अपनी-अपनी घात नहीं है,
आडंबर का नाम नहीं है, अनाचार का नाम नहीं है।
यहां गटकटे चोर नहीं है, तरह-तरह के शोर नहीं है,
सीधे-साधे भोले-भाले, हैं ग्रामीण मनुष्य निराले।
एक-दूसरे की ममता है, सबमें प्रेममयी समता है,
अपना या ईश्वर का बल है, अंतःकरण अतीव सरल है।
छोटे से मिट्टी के घर हैं, लिपे-पुते हैं,
स्वच्छ सुघर है गोपद चिन्हित आंगन तट है, रक्खे एक और जल-घट है।
खपरैलों पर बेलें छाई,
फूली फली हरी मन भाई

अतिथी कहीं जब आ जाता है, वह आतिथ्य यहाँ पाता है।
ऐसे माहौल में जिसका बचपन व्यतीत हुआ हो फिर उसे पथभ्रष्ट होनें कि गुंजाइश कम ही रहती है।

 गाँव के जर्जर भवन, टपकते छत तथा बाढ़ से ग्रसित प्राथमिक पाठशाला में इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। उस आधारभूत शिक्षा कि दुर्दशा के विषय में पुस्तक में वर्णित है कि बरसात में विद्यालय पानी से चारों तरफ घिर जाता था। स्कूल की छत जगह-जगह टपकती थी। सबसे पहले सभी स्कूल परिसर की सफाई करते थे। दोपहर में जब खाने का अवकाश मिलता तो हम सब पेड़ की टहनियों पर बैठकर खाना खाते। बेहया के डंडों से पिटाई होती थी। मार खाने पर कभी कभी-कभी दोनों हाथों में लाल-लाल निशान बन जाते थे। लेकिन इसी पिटाई ने आईएएस बना दिया। जिस दंड से इन्होंने अपने प्रगति का आधार बताया है आज उसे पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया है। तथा यदि कोई अध्यापक छात्रों को दंडित करता है तो कानून तथा अभिभावक उसके साथ अभिभावक जैसा वर्ताव करता है। इस आधारभूत शिक्षा कि जो उपेक्षा तथा दुर्दशा थी वह केवल इन्ही के गाँव कि नहीं बल्कि कमोबेश पूरे देश की थी। तभी नागार्जुन ने भी कुछ इसी अंदाज में लिखा है-

घुन खाए शहतीरों पर, बारहखड़ी विधाता बांचे।
फटी भीत है छत है चूती, आले पर बिसतुइया नाचे।
लगा-लगा बेवस बच्चों पर मिनट में पांच तमाचे,
इसी तरह से दुखहरन मास्टर गढ़ता है आदम के सांचे।।

  ऐसे पिछड़े गांव तथा अभाव के वातावरण से निकलकर इन्होंने गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर से बी. टेक की डिग्री हासिल किया। उसी दौरान इन्होने सिविल सर्विसेज की तैयारी भी शुरु कर दी थी। मन में धुन सवार थी सिविल सर्वेंट बनने की, पर मार्गदर्शक के अभाव में भटकाव का भी सामना करना पड़ा। लेकिन हौंसलों की जिद ने इन्हें पी. सी. एस. में उन्नीसवीं रैंक के साथ सफलता दिला ही दिया। किसी शायर ने भी इस जिद्दीपना पर लिखा है-
मंजिले भी जिद्दी है, रास्ते भी जिद्दी है। 
देखते हैं क्या होगा आगे, आखिर में हौंसले भी तो जिद्दी है।

इस क्षेत्र में कामयाबी मिलने पर खुशी तो थी ही पर IT BHU से एम. टेक बीच में छोड़ने की कशक इनके मन में अब भी विद्यमान है। शिक्षा के प्रति यह कशक ही इनके मन में पढ़ाई-लिखाई की लौ हमेशा जलाए रखी। रही कारण है कि आपने सेवा के दौरान सन 2009-10 के मध्य सेराकूज विश्वविद्यालय अमेरिका से एम. पी. ए. ( MASTER OF PUBLIC ADMINISTRATION) किया।प्रशासनिक सेवक के रुप में इन्होंने केवल खानापूर्ति नहीं किया बल्कि प्रशासन की बारीकियों को समझने के लिए उसके संदर्भ में व्यावहारिक तथा सैद्धांतिक अध्ययन जारी रखा। सन् 2015 में डा. ए. पी. जे. उ. प्र. तकनीकी विश्वविद्यालय से सुशासन (ROLE OF ICT IN ACHIEVING GOOD GOVERNMENT) विषय पर पी-एच. डी. की डिग्री हासिल किया। शोध तथा नये हुनर के प्रति आकर्षण और रुचि ही थी कि आगे चलकर इन्होंने डा. राम मनोहर लोहिया अवध विश्विद्यालय से संवाद से सुशासन की प्राप्ति (ROLE OF COMMUNICATION IN ACHIEVING GOOD GOVERNANCE) पर डी. लिट् की उपाधि प्राप्त किया। 

 पढ़ाई-लिखाई तथा प्रशासनिक सेवा ये निरंतर साथ-साथ करते रहे। जहाँ तक एस. डी. एम. के रुप में प्रथम पोस्टिंग की बात है तो सुल्तानपुर में जिला प्रशिक्षण के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्हें नगर मजिस्ट्रेट के रुप में तैनाती 10 अक्टूबर 1994 ई. को मिली। उस दौरान वहां के जिलाधिकारी ने इन्हें अवैध टैक्सी गाड़ी के संचालन पर रोक लगाने तथा शहर को जाम से निजात दिलाने का दायित्व सौंपा। चूंकि पोस्टिंग पहली थी अतः जोश ज्यादा और अनुभव कम था अतः सख्त रुख अपनाते हुए इन्होने विधायक तक को नहीं बख्शा। इनकी शिकायत उस विधायक ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव तक भी कर दिया। किताब में इस बात का जिक्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिलाधिकारी अक्सर ऐसे जटिल और जोखिम भरे काम प्रशिक्षु से कराते हैं, क्योंकि इनका अनुभव शून्य होता है और ऊर्जावान सबसे ज्यादा होते है। प्रशिक्षु ज्यादा आगे-पीछे नहीं सोचते, लग जाते हैं मिशन पर। 

  शिकायत मुख्यमंत्री से जरुर हुई पर इन्होंने अपने उत्साह तथा ऊर्जा को कम नहीं होने दिया। किताब कि टैग लाइन सहयोग से सुशासन, सुशासन से समृद्धि की परंपरा के अनुसार कार्य करते हुए अपने उत्साह को बरकरार रखा। इन्होंने इस बात को स्वीकार किया है कि जब मुझे नैनीताल में अपर नगर मजिस्ट्रेट के रुप में तैनाती मिली तो अवैध रुप से नगरपालिका के गोदाम पर काबिज व्यक्ति के विरुद्ध कार्रवाई कर दिया तो तत्कालीन जिलाधिकारी को यह नागवार लगा। अतः यहीं पर इन्होंने सभी को साथ लेकर किस प्रकार कार्य को अंजाम दिया जाता है यह युक्ति सीखा। किताब में जिक्र मिलता है कि शुरुआती दौर में जो पावर का नशा होता है वह मुझे भी था। अच्छे कार्य करने की ललक को खूब मौका मिला। अधिकारी के साथ तालमेल बनाकर, हंसाकर, सभी का सहयोग लेकर काम लेना यहां खूब सिखा। प्रशासनिक कार्यों का यह सिलसिला तथा गैरकानूनी विषयों पर बेहिचक कार्यवाही इन्होंने बाराबंकी तथा बरेली में डिप्टी कलेक्टर रहते हुए जारी रखा। 

 प्रशासन में यह आमतौर पर देखा जाता है कि कार्य किसी के द्वारा किया जाता है और श्रेय कोई अन्य लेना चाहता है। ऐसी ही एक घटना सभल की है जहाँ पर ये अपर मजिस्ट्रेट के रुप में तैनात थे। उस समय दो पक्षों के लगभग दस हजार लोगों की भीड़ जमीनी विवाद को लेकर आमने-सामने आ गई। मात्र दो होमगार्डो, एक हाथ में लाठी, दूसरे हाथ में रिवाल्वर लेकर चिल्लाता रहा, भीड़ को भगाता रहा तथा दूसरी तरफ की कमान सी.ओ. को दे दिया। लगभग दो घंटे में भीड़ सड़क से हटाकर बस्ती में कर पाया। अपर पुलिस अधीक्षक सेट पर चिल्लाते रहे कि चल दिए हैं। लोकेशन देते रहे। दस मिनट का रास्ता दो घंटे में तय किया। मामला शांत होने पर मौके पर पहुंचकर नाटक करने लगे, ताकि मीडिया वाले फोटो लेकर छाप दे कि दंगा अपर पुलिस अधिक्षक ने रोका। मैनें दो घंटे इतनी जी तोड़ मेहनत, भागदौड़ की और चिल्लाया कि अगले सात दिन टाँगों के सामान्य होने में लग गए। अपर पुलिस अधीक्षक बहुत बहुरुपिया और तिल का ताड़ बनाने वाला था। उनमें दूसरे का काम अपना दिखाने की फितरत थी। अगले दिन सभी समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ पर मेरा रिवाल्वरवाला फोटो छपा शीर्षक था कि ए.डीएम. ने जान जोखिम में डालकर दंगा बचाया। इससे मुझे संतुष्टि हुई तथा आत्मविश्वास बढ़ा।

दो तरह के विकास की चर्चा पुस्तक में मिलती है-एक रचनात्मक विकास तथा दूसरा विध्वंसात्मक विकास है। इन्होंने सदैव रचनात्मक विकास की ओर कदम बढ़ाया। यह सृजनात्मक विकास के प्रति समर्पण, ऊर्जा, सक्रियता और गतिशीलता ही थी कि बाँदा की जनता ने इन्हें DYNAMIC डी. एम. के नाम से विभूषित किया। अध्ययन के प्रति लगाव का ही परिणाम था कि जब इन्हें जिलाधिकारी बाँदा के रुप में तैनाती मिली तो इन्होंने इंस्टीट्यूट आफ एप्लाइड स्टैटिस्टिक्स एंड डेवलपमेंट स्टीडज, 2016 कि रिपोर्ट में बाँदा जनपद के समक्ष क्या-क्या चुनौतियां हैं का अध्ययन कर गहन विश्लेषण भी कर लिया। कहावत भी है कि डाक्टर की दवा तभी काम करती है जब उसे मर्ज की सटीक पहचान हो। इस प्रकार इन्होंने उस जनपद की समस्याओं को समझा तथा एक-एक करके उसके समाधान का अथक प्रयास भी किया। पर यह कार्य अकेले संभव नहीं था अतः सबसे पहले इन्होंने बाँदा जनपद की जनता का विश्वास जीता तथा उनमें सकारात्मकता भरी। पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इधर हाल के वर्षों में जिलाधिकारी का पद आम जनता की नजरों में खरा नहीं उतरा। इसलिए जनता का नजरिया बदला है और सकारात्मक से नकारात्मक हुआ है। नकारात्मकता को खत्म कर पुनः खोए हुए विश्वास को प्राप्त करना पूरे देश के आई.ए. एस. के सामने एक बड़ी चुनौती है। इसी चुनौती को स्वीकार कर मैनें डी. एम. बाँदा के रुप में मात्र डेढ़ साल के प्रथम कार्यकाल में जन सहभागिता, जिले में उपलब्ध व्यवस्था से ही बीस से ज्यादा नवाचार कर प्रदेश, देश, विदेश में जिले का नाम रोशन किया।

 जनसहयोग तथा अपने प्रयास से बाँदा जनपद में जल की समस्या को कम करने के लिए इन्होंने 470 गाँवों में 2443 खंती खुदवाई। कुआं-तालाबो में पानी लाएँगे - बाँदा को खुशहाल बनाएँगे के नारे के साथ आमजन का कुआं-तालाबो से पुराना लगाव पुनः स्थापित करने का अभियान छेड़ा। पानी के प्रति लगाव के लिए जल मार्च निकाला, केन, वागे, यमुना पर जल आपूर्ति शूरु कराया, जल के स्रोतों कुआं-तालाब पर विभिन्न अवसरों पर दीपदान कराया। कविता, कहानी तथा जल संगोष्ठियो के माध्यम से जल संरक्षण के लिए प्रेरित किया गया। उनका मत है कि मैं लोगों के दिल, दिमाग, सोच में कुआं, तालाब, नदी खोदना चाहता हूं। मौकें पर जमीन पर खुदे, न खुदे, मायने नहीं रखता, लेकिन लोगों के दिल, दिमाग और सोच में जरुर खुदना चाहिए। इनके अथक प्रयासों का ही परिणाम निकला कि करीब सवा साल के अंदर 1.34 मीटर जल स्तर ऊपर आया और फसल की उत्पादकता 18.5 प्रतिशत बढ़ गई।

इस जनपद में बेरोजगारी तथा गरीबी के समाधान के लिए इन्होंने स्टार्टअप और इनोवेशन कार्यक्रम की शुरुआत किया। इसके माध्यम से लोगों के मन में आशा का संचार तथा नये उद्यमशीलता के लिए प्रोत्साहित किया। कुपोषण जोकि एक छिपी हुई समस्या इस जनपद में थी के समाधान के लिए यूनिसेफ तथा अन्य लोगों की मदद से अभियान आरंभ किया। जन-जन की भागीदारी, सुपोषण के लिए है जरुरी नारे के साथ स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाया। इस अभियान की सार्थकता इस बात में है कि बच्चों के वजन तथा लंबाई में सुधार हुआ। बतौर बाँद जिलाधिकारी रहते हुए इन्होने जब जेल का निरीक्षण किया तो देखा कि कैदियों के चेहरे से मुस्कान गायब थी। सभी लोग हताश और निराश लग रहे थे। सभी चेहरे दुख, दर्द और परेशानी से काले दिख रहे थे। यह सब देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मन व्यथित हुआ। पूरी जेल में एक मायूसी का माहौल था। इस पर इन्होंने जेल सुधार करने को ठानी। उनका मानना है कि लोगों की धारणा है कि जेल एक सजा घर है जबकि वास्तव में वह सुधार गृह है। नवीन गतिविधियां अपनाएंगे और बाँदा जेल को सर्वोत्तम बनाएंगे के स्लोगन के साथ अपने कार्य की शुरुआत किया। कैदियों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए योगाभ्यास-खेल तथा जेल के वातावरण को पेड़ पौधों का रोपण करके हरा भरा किया। विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से कैदियों के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया तथा हर कैदी को अपना हुनर दिखाने का मौका दिया। जब उ. प्र. जेल प्रशासन ने एक समिति बनाकर सभी जेल का कार्यों का मूल्यांकन कराया तो जिला कारागार बाँदा को सर्वोत्तम कारागार का खिताब मिला।

 यह सामान्य रुप से देखने में आता है कि शासन के द्वारा वृक्षारोपण के कार्यक्रम प्रतिवर्ष आयोजित किये जाते है। वृक्षारोपण करने के बाद हम उसकी देखभाल करना भूल जाते हैं जिससे हमें पर्यावरण सुधार में उस स्तर का सकारात्मक परिणाम नहीं मिल पाता है जिस अनुपात में वृक्षारोपण होता है। अतः इससे सबक लेते हुए इन्होंने बाँदा में पेड़ जियाओ अभियान की शुरुआत किया। उनका मत है कि वृक्ष लगाना अधूरा कार्य है। वृक्ष जिलाना वृक्षारोपण का पूरा कार्य है। इस सोच को धरा पर उतारने के लिए एक ठोस रणनीति तैयार किया। लोगों का पेड़ों के प्रति लगाव, देखभाल कर जिंदा रखने का मनोभाव पैदा करना शूरु किया। चूंकि भारत एक धर्म प्रधान देश है अतः इन्होंने पेड़ प्रसाद योजना शूरु किया। जब हम मंदिर जाते है तो फूल, पत्ती तथा लड्डू आदि देवता को अर्पित करते है तथा पुजारी द्वारा प्रसाद दिया जाता है जिसे हम सहर्ष-ससम्मान ग्रहण करते है। इन्होंने लड्डू, फूल-पत्ती के साथ एक पौधा भी चढ़ाया जाए कि शुरुआत किया। अब मंदिर के पुजारी श्रद्धालु को प्रसाद के रुप में पौधा भेंट करने लगे। ऐसे में मंदिर से प्राप्त पौधों के प्रति लोगों की अटूट श्रद्धा जुड़ जाती जिससे वे उसे जिंदा रखने की भरपूर कोशिश करते। इसके अतिरिक्त डा. हीरालाल को यदि कोई निमंत्रण में बुलाता तो इनकी शर्त थी कि हम तभी आऊँगा जब बारातियों को सौ पौधे गिफ्ट करेंगे। इनका यह विचार चल पड़ा तथा पेड़-पौधों के प्रति लोगों का शौक बढ़ता गया। जनहित के प्रति लगाव का ही परिणाम था कि इन्होंने बाँदा में योग रखे निरोग, छात्र विकास कार्यक्रम, प्लास्टिक मुक्त बाँदा, नेकी की दीवार, बाँदा पर्यटन, महिला विकास तथा आक्सीजन पार्क की स्थापना करके कार्यों को अंजाम दिया। छात्र-छात्राओं को एक दिन का प्रशासनिक अधिकारी बनाकर उनके व्यक्तित्व को विकसित करने के प्रयास को काफी सराहा गया। इससे आम आदमी तथा प्रशासनिक अधिकारियों के बीच दूरी कम हुई। नेकी की दीवार की प्रेरणा उन्हें अपने अधीनस्थ अधिकारी से मिली जिसे इन्होने बेहिचक व सहर्ष स्वीकार किया तथा इसे जिले के प्रत्येक विभाग में लागू कराया। यहां पर लोग अपने अतिरिक्त तथा अनुप्रयोग कपड़ो तथा समान को छोड़ सकते थे जिससे जरुरतमंद लोग इसे निःशुल्क ले जा सके।

 असामाजिक तत्वों के निगरानी हेतु यहां पर सीसीटीवी कैमरे लगवाये गए तथा दान देने वालो को समय-समय पर प्रशस्तिपत्र देकर सम्मानित किया गया। इससे लोगों के मन में समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन का अवसर मिला तथा निर्बल वर्ग के प्रति सहयोग के लिए लोग प्रेरित हुए।
      अब हम उनके उस कार्य की चर्चा करेंगे जिसकी प्रशंसा प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहते  हुए  किया कि चुनाव में चुनावी मशीनरी होती है, चुनाव में ये करो, ये न करो, ढिकाना करो, फलाना न करो, इसी में लगी रहती है। मुझे बताया गया कि यहाँ जिले के जो चुनाव अधिकारी है, वे सौ प्रतिशत वोटिंग के लिए मेहनत कर रहे है, ये बहुत अच्छी बात है। मैं उनको बधाई देता हूं और निर्वाचन आयोग को भी ऐसे मेहनत करने वाले अफसरो की तरफ देखना चाहिए। जी हां यह बात है 2019 के लोकसभा चुनाव की जब डा. हीरालाल ने सुनियोजित ढंग से मेहनत करते हुए बाँदा जिले का जो मतदान लोकसभा चुनाव - 2014 में 52.69 प्रतिशत था को लोकसभा चुनाव 2019 में 10.55 प्रतिशत इजाफे के साथ 63.24 प्रतिशत कर दिया। यही नहीं लोकसभा चुनाव - 2014 मे बाँदा का कोई भी बूथ नब्बे प्रतिशत मत नहीं हासिल कर पाया था। लोकसभा चुनाव - 2019 जब इनके देखरेख में हुआ तो नब्बे प्रतिशत के आंकड़े सात बूथ पार कर गये। जो वास्तव में प्रशंसनीय है।

     गाँवों को खुशहाल तथा समृद्धिशाली बनाने के लिए इनके माॅडल गाँव की चर्चा वर्तमान में जोरो पर है। इस माॅडल गाँव का विजन गाँवों का चौमुखी विकास करना है। इस माॅडल गाँव का पचीस सूत्रीय एजेंडा है जो भी इसमें शामिल होना चाहते है उन्हें इस एजेंडे के तहत कार्य करने होंगे। गाँव साफ सुथरे हो, कोई अनपढ़ न हो, लोगों की आय में वृद्धि हो, सभी के  हाथ में काम हो, आधुनिक इंटरनेट तथा कृषि विपणन की सुविधा हो और प्रत्येक वर्ष गाँव का स्थापना दिवस मनाया जाय आदि को लेकर जो प्रयोग उन्होंने अब तक किया वह अब परवान चढ़ रहा है। तत्कालिन बाँदा के जिलाधिकारी रहते हुए उन्होंने सोचा कि सारा कार्य अकेले सरकार नहीं कर सकती अतः ग्रामीणों को इससे जोड़ना शुरू किया तथा उनके सामने एजेंडा भी रखा। उनके इस माॅडल गाँव की सफलता को देखते हुए नीति आयोग ने इसे अपने एजेंडे में शामिल कर लिया तथा नीति आयोग के उपाध्यक्ष डा. राजीव कुमार ने उनके इस माॅडल गाँव की प्रशंसा भी किया।

 बात आती है प्रधानमंत्री पुरस्कार की तो उसके जो मानक निर्धारित किये गये थे जैसे जल संरक्षण, जेल सुधार, मतदान प्रतिशत में सुधार, कुपोषण की समाप्ति, स्टार्टअप और इनोवेशन तथा प्रशासनिक सुधार आदि उसमें ये खरे उतर रहे थे। अतः प्रधानमंत्री पुरस्कार की गाइडलाइंस पढ़कर तथा मित्रों से प्रोत्साहन पाकर इन्होंने पुरस्कार के लिए आवेदन कर दिया। प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्तर पर इनका चयन पुरस्कार के लिए होता चला गया पर चतुर्थ स्तर में इन्हें बाहर कर दिया गया। जिससे इन्हें काफी पीड़ा हुई। उसको बयां करते हुए कहा कि अंततः एक जीती जंग हार गया। मन में पुरस्कार न पाने की कसक थी। जिस तरीके से नाम चतुर्थ स्तर के मुल्यांकन से हटाया गया वह पीड़ादायक था। जरुर, पुरस्कार न मिलना कष्टकारक होता है पर कार्तव्यों के प्रति जो निष्ठा तथा ईमानदारी, आमजन के प्रति जो संवेदनशीलता तथा प्रेम, जनता ने  आपके ऊपर जो भरोसा और विश्वास जताया वह एक प्रशासनिक अधिकारी को पुरस्कार मिलने से अधिक काबिले तारीफ है। सत्ता और पावर का नशा जहाँ व्यक्ति को अपने कर्तव्य से विचलित कर देता है। वहीं पर इन्होंने कैसे लोगों के साथ तालमेल बिठाकर तथा विश्वास जीतकर कार्यो को अंतिम रुप दिया आज के नौकरशाहों को इस पुस्तक के माध्यम से सिखने की जरुरत है।

 पुस्तक में यह बात उल्लिखित है कि सत्ता और पावर का नशा बहुत खराब होता है। डी.एम. के पद के साथ ये दोनों है। डी. एम. के रुप में मैने हमेशा कमजोर पाया क्योंकि हम लोग जनता कि समस्याओं और दुश्वारियों से लगातार जूझ रहे थे और खत्म नहीं कर पा रहे थे। मुझे नशा था जनता की समस्या कम करने, लोगों की खुशहाली बढ़ाने और लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने का। लोग अक्सर ताना मारते है कि आई.ए.एस. काले अंग्रेज है। मैंने इस सोच को तोड़ा और देशी, देहाती, किसान की वेशभूषा और भाषा में कामकर, सरकार और समाज के बीच की दूरी को खत्म किया। शासन-प्रशासक की सोच से ऊपर उठकर आमजन को साथ लेकर खुशहाली और विकास के रास्ते पर अग्रसर हो पड़ा। ऐसे में कह सकते है कि यह पुस्तक आज के प्रशासनिक अधिकारियों को सामान्य जनजीवन के साथ घुलमिलकर कार्य करने की प्रेरणा देती है। कहावत भी है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। झूठे अहंकार तथा दर्प से दूर होकर सबसे पहले एक मनुष्य होने का संदेश इस पुस्तक में निहित है। तथा पद-पैसों के ऊपर मनुष्यता को वरीयता प्रदान किया गया है। ऐसे में उनकी सहजता-सरलता तथा कार्य करने की शैली उन्हें प्रशासन का हीरा साबित करती है।

  

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