मुझे सवर्णों की राजनीतिक हलवाही नहीं करनी है : बाबू जगदेव प्रसाद - तहक़ीकात समाचार

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बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

मुझे सवर्णों की राजनीतिक हलवाही नहीं करनी है : बाबू जगदेव प्रसाद

आजादी के बाद खासकर उत्तर भारत में गरीबों-वंचितों के मुद्दों को राजनीति के केंद्र में लाने वाले राजनेताओं में जगदेव प्रसाद का नाम प्रमुख है। उन्हें बिहार का लेनिन कहा जाता हैl

राममनोहर लोहिया के नारे पिछड़ा पावे सौ में साठ के नारे का विस्तार कर जगदेव प्रसाद ने नब्बे बनाम दस का नारा दिया था। वे दलितों-पिछड़ों के बड़े नेता थे। वे बिहार सरकार में तीन बार मंत्री रहे और एक समय मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार भी थे। लेकिन बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित होगें कि उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन में किस तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़़ा था। यहां तक कि एक समय उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि सुई-धागा तक खरीद सकें।

शिक्षा सिर्फ पढ़ने-लिखने की काबिलियत ही नहीं देती, बल्कि वह सोचने-समझने की क्षमता भी बढ़ती है। शिक्षित आदमी समाज को नयी दृष्टि से देखता है, समाज की वास्तविक समस्याओं को समझता है और उनके समाधान भी सुझाता है। फिर इसी से  समतावादी समाज की अवधारणा का निर्माण होता है। हमारे देश को औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुए बेशक सात दशक से अधिक समय बीत चुका है लेकिन अभी भी शासन और प्रशासन में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की भागीदारी समानुपातिक नहीं है। असली समस्या यह है कि बहुजनों के पास चिन्तकों की कमी है. और जो हैं उन्हें यह समाज अपने पिछड़ेपन की वजह से नहीं पहचान पाता और तवज्जो नहीं देता। इसका मूल कारण एक ही है – शिक्षा से वंचित होना। और वंचित करने वाला इस देश का ब्राह्मण और सवर्ण समाज है। इसकी वजह यह कि वंचित तबकों में राजनेता जरूर हुए लेकिन सबकी अपनी सीमा रही। परंतु, भारत के लेनिन जगदेव प्रसाद इसके अपवाद थे। डॉ. आंबेडकर के बाद वे ऐसे चिंतक के रूप में सामने आए जिन्होंने राजनीतिक सत्ता से अधिक सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता पर अधिकार की बात कही।

जगदेव प्रसाद सबसे अधिक जोर शिक्षा पर देते थे। उनका कहना था कि शिक्षा पर सबका बराबर का अधिकार है। चाहे वह स्टूडेंट्स के रूप में हो या शिक्षक के रूप में। उनका सपना शिक्षा का सर्वव्यापीकरण और जनतंत्रीकरण था। उनके इस विचार के पीछे फुले दंपत्ति द्वारा 19वीं सदी में जलाई गई मशाल की रोशनी थी। यह अकारण नहीं था कि जब राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले स्कूल पढ़ाने जाती थी तब द्विज/ सवर्ण समाज उन पर गोबर और कीचड़ फेंकता था। और यह भी अकारण नहीं था कि जब अंग्रेजों ने शिक्षा को सार्वभौमिक करने की कोशिश की तब द्विज/ सवर्ण समाज ने उसका विरोध किया। 

जगदेव प्रसाद कहतें हैं कि “राष्ट्रीयता और देशभक्ति का पहला तकाजा है कि कल का भारत नब्बे प्रतिशत शोषितों का भारत बन जाए।”उनकी यह मांग सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सीमित नहीं थी। उनकी मांग थी कि “सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम-से-कम 90 फीसदी जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाय।” 

मुझे सवर्णों की राजनीतिक हलवाही नहीं करनी है : 

जगदेव प्रसाद ने अपने जीवन मूल्यों को सबसे आगे रखा। न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि राजनीति में भी। जब कभी उन्हें लगा कि जिन मूल्यों के लिए वे राजनीति कर रहे हैं, उनका अनुपालन नहीं हो रहा है तब उन्होंने विद्रोह किया। मसलन, जब बिहार में पहली गैरकांग्रेसी सरकार महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी और मंत्रिपरिषद में पिछड़े वर्ग के लोगों को अपेक्षित हिस्सेदारी नहीं दी गई जो कि सोशलिस्ट पार्टी के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था, तब जगदेव प्रसाद ने लोहिया जी से इसकी शिकायत की। लेकिन जब उन्होंने भी हस्तक्षेप करने से इनकार किया, तब जगदेव प्रसाद ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ बिगुल फूंका। तब वे स्वयं कुर्था से विधायक थे। पार्टी के कुछ असंतुष्ट विधायकों को साथ लेकर उन्होंने पटना के ऐतिहासिक अंजुमन इस्लामिया हॉल में 25 अगस्त, 1967 को शोषित दल की स्थापना की। 

इसी मौके पर अपने संबोधन में जगदेव प्रसाद ने कहा था – “आज का हिन्दुस्तानी समाज साफ तौर पर दो भागों में बंटा हुआ है – दस प्रतिशत शोषक और नब्बे प्रतिशत शोषित।  दस प्रतिशत शोषक बनाम नब्बे प्रतिशत  शोषितों की इज्जत की लड़ाई हिन्दुस्तान में समाजवाद या वामपंथ  की असली लड़ाई है। उन्होंने यह भी कहा था- कि पिछड़े, दलित, आदिवासी और मुसलमानों की आबादी 90 प्रतिशत है। बाकी बचे हुए तथाकथित ऊंची जाति की आबादी 10 प्रतिशत। मैं केवल 90 प्रतिशत शोषितों के लिए राजनीति करता हूं।
जगदेव प्रसाद अपने विचारों के प्रति कितने प्रतिबद्ध थे, इसका पता इसी से चलता है कि उन्होंने साफ तौर पर घोषित कर रखा था – “ऊंची जाति वालों ने हमारे बाप-दादों से हलवाही करवाई है। मैं उनकी राजनीतिक हलवाही करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं।”

जगदेव प्रसाद भविष्य में होने वाले बदलावों को लेकर आश्वस्त थे। उन्होंने कहा था- “मैं आज सौ वर्षों की लड़ाई की नींव डाल रहा हूं। यह एक क्रांतिकारी पार्टी होगी। जिसमें आने और जाने वालों की कमी नहीं रहेगी। परंतु इसकी धारा रूकेगी नहीं। 

जगदेव प्रसाद बिहार की राजनीति के अगुआ नेता थे। उनके द्वारा स्थापित शोषित दल ने 1968 में ही सरकार बनाने में सफलता हासिल कर ली। सतीश प्रसाद सिंह ओबीसी समाज से आने वाले पहले मुख्यमंत्री बने। हालांकि राजनीतिक कारणों से यह फैसला लिया गया था और वे महज तीन दिन के लिए सीएम रहे। उनके बाद बी.पी. मंडल मुख्यमंत्री बने। वे भी ओबीसी समाज के ही थे। यह सब संभव हुआ जगदेव प्रसाद के नेतृत्व के कारण। 

बहरहाल, जगदेव प्रसाद की राजनीति केवल सत्ता पाने की राजनीति नहीं थी। वे समाज में आमूलचूल बदलाव चाहते थे। वे जाति व्यवस्था के विरोधी थे और हिंदू धर्म में पाखंड का खुलकर विरोध करते थे। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री रामस्वरूप वर्मा तब समाज दल का नेतृत्व करते थे और उन्होंने 1 जून, 1968 को अर्जक संघ की स्थापना की थी, जो ब्राह्म्णवाद को खारिज करता था और इसका उद्देश्य मानववाद को स्थापित करना था। जगदेव प्रसाद भी अर्जक संघ के विचारों को मानते थे। इन्हीं वैचारिक समानताओं के कारण 7 अगस्त, 1972 को दोनों नेताओं ने पटना में मिलकर शोषित समाज दल का गठन किया, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष रामस्वरूप वर्मा और महामंत्री जगदेव प्रसाद चुने गए। 

इस बीच जगदेव प्रसाद बिहार की राजनीति को बपौती मानने वाले सामंती ताकतों की आंखों में कांटों की तरह चुभने लगे थे। वर्ष 1974 में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ एक ओर जहां जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति का आंदोलन चल रहा था। वहीं जगदेव बाबू ने सात सूत्री मांगों को लेकर आंदोलन चला रखा था। इसी क्रम में 5 सितंबर, 1974 को जगदेव प्रसाद कुर्था (तत्कालीन जिला गया और अब अरवल) प्रखंड कार्यालय पर हजारों किसानों मजदूरों के साथ दल की मांगों के समर्थन में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। तभी उन्हें एक साजिश के तहत गोली मारकर हत्या कर दी गई।

हत्यारों ने भले ही जगदेव प्रसाद की हत्या कर दी, लेकिन वे उनके विचारों की हत्या नहीं कर सके। आज भी उनका नारा बिहार के दलितों-पिछड़ों में जोश भर देता है- “सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है। धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है। दस का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा – नहीं चलेगा।” यही वजह है कि जगदेव प्रसाद को याद करते समय उनके समर्थक मातम नहीं मनाते हैं, बल्कि हर वर्ष जयंती के मौके पर यानी 2 फरवरी को कुर्था प्रखंड कार्यालय में तीन दिनों का मेला लगाते हैं, जिसमें देश भर से लोग भाग लेते हैं ।

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