सच्ची रामायण लिखने वाले कर्मवीर सिंह यादव के नाम के आगे कैसे जुड़ा "पेरियार" उनके जन्मजयंती पर पढ़ें कहानी ललई सिंह यादव की - तहक़ीकात समाचार

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मंगलवार, 1 सितंबर 2020

सच्ची रामायण लिखने वाले कर्मवीर सिंह यादव के नाम के आगे कैसे जुड़ा "पेरियार" उनके जन्मजयंती पर पढ़ें कहानी ललई सिंह यादव की

विश्वपति वर्मा-

कर्मवीर ललई सिंह यादव जी का जन्म 1 सितम्बर 1911 को ग्राम कठारा रेलवे स्टेशन-झींझक, जिला कानपुर देहात के एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था. उनके पिता चौधरी गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ आर्य समाजी थे एवं माता श्रीमती मूलादेवी, उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चौधरी साधौ सिंह यादव की पुत्री थी. 
ललई सिंह यादव जी ने सन् 1928 में हिन्दी के साथ उर्दू विषय लेकर हाईस्कूल पास किया. वह सन् 1929 से 1931 तक फाॅरेस्ट गार्ड के पद पर कार्यरत रहे एवं सन 1931 में ही इनका विवाह श्रीमती दुलारी देवी जी के साथ सम्पन्न हुआ. तत्पश्चात सन 1933 में वह सशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबिल के पद पर भर्ती हो गये . अपनी सिपाही की नौकरी से समय निकाल कर वह अपनी उच्च शिछा -दीछा भी सम्पन्न करते रहे और सन् 1946 में नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर के अध्यक्ष चुने गए. नौकरी में रहते हुए उन्होंने तत्कालीन सिपाहियो की दशा पर ‘‘सिपाही की तबाही’ नामक एक पुस्तक लिखी, जिसने समस्त सिपाहियों को क्रांति के पथ पर चलने का आह्वान किया. इस प्रकार अंग्रेजी राज के खिलाफ इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तर्ज पर ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी कर्मचारियों को संगठित कर पुलिस और फौज में हड़ताल करवाई एवं 

आखिरकार अंग्रेजी हुकूमत ने 29.03.1947 को ग्वालियर स्टेट्स के स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस व सेना में हड़ताल कराने के आरोप धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों सहित उन्हें राज-बन्दी बना लिया और 06.11.1947 को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने उन्हें अध्यक्ष हाई कमाण्डर ग्वालियर नेशनल आर्मी होने के कारण 5 वर्ष स-श्रम कारावास तथा 5 रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड भी सुना दिया . जेल की सजा होने के बाद अंततः देश आजाद होने पर वह दिनांक 12.01.1948 को अपने सभी साथियों सहित जेल से रिहा हुये. 

एक ईमानदार स्वतन्त्रता सेनानी और क्रन्तिकारी विचारो के कारण उन्हें अन्याय बिलकुल बर्दास्त नही था फिर वह चाहे किसी भी स्वरूप में क्यों न हो . इसी लिए हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास और पाखण्ड के खिलाफ वह विद्रोह कर बैठे . हिन्दू धर्म में मनुवाद और ब्राह्मणवाद से उपजे शोषण पर वह काफी दुखी थे और ऐसी स्थिति में इन्होंने यह धर्म छोड़ने का भी मन बना लिया. वह समाज में व्याप्त सामजिक विषमता के घोर खिलाफ थे और समस्त मानव जाति के प्रति समता और बन्धुत्व का व्यवहार चाहते थे . उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, स्मृति और पुराणों से ही पोषित है. सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है. 

तभी इन्हें यह अहसास हुआ कि देश की अशिछित जनता को जागरूक करने एवं विचारों के प्रचार- प्रसार का सबसे सबल माध्यम साहित्य ही है अत; साहित्य प्रकाशन की ओर भी इनका विशेष ध्यान गया. उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था स्थापित की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा . इसके पश्चात उन्होंने 5 नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक. गद्य में भी उन्होंने 3 पुस्तके लिखीं – (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? 

एशिया के सुकरात कहे जाने वाले दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामस्वामी नायकर जी के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हो रहे थे जिनसे ललई सिंह यादव जी उनके सम्पर्क में आये. सम्पर्क होने पर पेरियार द्वारा लिखित ‘‘रामायण ए ट्रू रीडि़ंग’’ में उन्होंने विशेष अभिरूचि दिखाई. इसके बाद दोनों सामजिक क्रान्तिकारियो में इस पुस्तक के प्रचार प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में करने पर विशेष चर्चा हुई. समस्त उत्तर भारत में इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति पैरियार रामास्वामी नायकर जी ने ललईसिंह यादव जी को 01-07-1968 को दे दी. जिसके बाद ललईसिंह यादव जी द्वारा इसे 'सच्ची रामायण' के हिन्दी स्वरूप में 01-07-1969 को प्रकाशित किया गया . इसके प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व तथा पश्चिम् भारत में एक तहलका सा मच गया. जिससे उ.प्र. सरकार द्वारा 08-12-1969 को इस पुस्तक को प्रतिबंधित कर इसके जब्ती का आदेश प्रसारित हो गया . सरकार के अनुसार यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी थी . 

इस प्रतिबन्ध और साहित्यिक दमन के विरूद्ध प्रकाशक ललई सिंह यादव जी ने हाई कोर्ट इलाहाबाद में क्रमिनल मिसलेनियस एप्लीकेशन 28-02-1970 को प्रस्तुत किया . कोर्ट में तीन जजों की स्पेशल बैंच इस केस के सुनने के लिए बनाई गई . जिसमे अपीलांट (ललईसिंह यादव) की ओर से निःशुल्क एडवोकेट श्री बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी श्री पी.सी. चतुर्वेदी एडवोकेट व श्री आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस दिनांक 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार 3 दिन तक सम्पन्न हुई. जिसमे 19-01-71 को माननीय जस्टिस श्री ए. के. कीर्ति, जस्टिस के. एन. श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत से निर्णय दिया कि -

1. गवर्नमेन्ट आफ उ.प्र. की पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ की जब्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है. 
2. जब्तशुदा पुस्तकें ‘सच्ची रामायण’ अपीलांट ललईसिंह यादव को वापिस दी जाये. 
3. गर्वन्र्मेन्ट आफ उ.प्र. की ओर से अपीलांट ललई सिंह यादव को 300 का हर्जाना खर्च भी दिया जाए . 

अभी ललई सिंह यादव द्वारा प्रकाशित ‘सच्ची रामायण’ का प्रकरण चल ही रहा था कि उ.प्र. सरकार की 10 मार्च 1970 की स्पेशल आज्ञा द्वारा 'सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें' नामक पुस्तक जिसमें डाॅ. अम्बेडकर के कुछ भाषण थे तथा 'जाति भेद का उच्छेद' नामक पुस्तक 12 सितम्बर 1970 को चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी. इसके लिए भी ललई सिंह यादव ने श्री बनवारी लाल यादव एडवोकेट, के सहयोग से मुकदमें की पैरवी की. मुकदमें की जीत से ही 14 मई 1971 को उ.प्र. सरकार की इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी और सभी पुस्तके जनता को उपलब्ध हो सकी. इसी प्रकार ललई सिंह यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश’ के विरूद्ध 1973 में मुकदमा चला दिया गया और यह मुकदमा उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा.

पुस्तक 'सच्ची रामायण' समेत अन्य पर हाई कोर्ट में हारने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी किन्तु वहां भी अपीलांट उत्तर प्रदेश सरकार क्रिमिनल मिसलेनियस अपील नम्बर 291/1971 ई. निर्णय सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया, नई दिल्ली दि. 16-9-1976 ई. के अनुसार अपीलांट की हार हुई अर्थात् रिस्पांडेण्ट श्री ललई सिंह यादव की जीत हुई. यहाँ फुलबैंच में माननीय सर्वश्री जस्टिस पी. एन. भगवती जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर तथा जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली मौजूद थे . 


महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामास्वामी नायकर जो गड़रिया (पाल-बघेल) जाति के थे, अचानक वह 20 दिसम्बर 1973 की सुबह इस लोक से विदा हो गये. उनकी मृत्यु के पश्चात् एक विशाल सभा में चेन्नई में ललईसिंह यादव जी को एक व्याख्यान हेतु बुलाया गया था. श्री रामास्वामी नायकर पेरियार जी की श्रद्धांजलि सभा में दिये गये इनके भाषण पर दक्षिण भारतीय श्रोता मुग्ध हो गये और इनके भाषण की समाप्ति पर 3 नारे लगाये गये. 

1 . अब हमारा अगला पैरियार
2 . पैरियार ललई सिंह
3 . पैरियार ललई सिंह



इस घटना के बाद से ही इनके नाम के पूर्व पैरियार शब्द का शुभारम्भ हुआ. दक्षिण भारत में पैरियार शब्द जाति वादी नहीं अपितु स्वच्छ निष्पक्ष-निर्भीक अथवा सागर के अर्थों में प्रयोग किया जाने वाला सम्मान सूचक शब्द है. शोषित पिछड़े समाज में स्वाभिमान व सम्मान को जगाने तथा उनमें व्याप्त अज्ञान, अंधविश्वास, जातिवाद तथा ब्राह्मणवादी परम्पराओं को ध्वस्त करने के उद्देश्य से वह लघु साहित्य के प्रकाशन की धुन में अपनी 59 बीघे की जमीन कौडि़यों के भाव बेच प्रकाशन के कार्य में आजीवन जुटे रहे और अंत में एक कर्मयोगी की तरह 7 फरवरी 1993 को उन्होंने इस दुनिया से अंतिम विदा ले ली.

देश के पिछड़े और शोषित समाज की लड़ाई आजीवन लड़ने के बावजूद भी आज पेरियार ललई सिंह यादव जी का नाम गुमनामी के अँधेरे में खोया हुआ है . उनके क्रन्तिकारी विचारो के तेज और बहुमूल्य साहित्य को तलाशना भी एक दुरूह कार्य बन चूका है जिसका दोष इस देश की  मनुवादी ताकतों के साथ -साथ थोडा -बहुत बहुजन को भी दिया जाना चाहिए . काश बहुजन समाज अपने इस महापुरुष के संघर्ष को संजो कर आगे बढ़ पाता तो उसमे कही न कही क्रन्तिकारी वैचारिक बदलाव अवश्य नजर आता .

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