विश्वपति वर्मा(सौरभ)
किसी देश का विकास उस मुल्क की शिक्षा के विकास के बगैर संभव नहीं है लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में शिक्षा के विकास को प्राथमिकता देने की बजाय शिक्षा का बाजारीकरण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा जा रहा है।
देश भर के प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए सरकार अच्छा खासा बजट तो खर्च कर रही है लेकिन यहां पढ़ने वाले बच्चे शैक्षणिक, सामाजिक और मानसिक रूप से मजबूत नही बन पा रहे हैं यहाँ तो बस शिक्षा के अधिकार अधिनियम को वैश्विक परिदृश्य में दिखाने के लिए सरकार झूठा प्रयास कर रही है।
वहीं दूसरी तरफ देश भर के प्राइवेट सेक्टर के स्कूलों में सरकारी स्कूलों से कम खर्चा में बेहतर पढ़ाई लिखाई हो रहा है लेकिन प्राइवेट सेक्टर के औसत दर्जे के स्कूल में 80 फीसदी जनता की क्षमता नही है कि वह अपने बच्चों को सामान्य से ऊपर दर्जे के स्कूल में दाखिला दिला सकें क्योंकि ऐसे विद्यालयों में स्कूल फीस ,ड्रेस, किताब ,शैक्षणिक शुल्क, वाहन खर्चा इत्यादि जुटाना छोटे-मझले किसान और मजदूर वर्ग के बस की बात नही है।
ऐसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार को पहली से लेकर इंटरमीडिएट तक की शिक्षा को बेहतर से बेहतर बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए ,सभी सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की संख्या को भरना चाहिए ,रचनात्मक पढ़ाई-लिखाई के साथ स्कूल के संसाधन में बढ़ोतरी किया जाना चाहिए,स्कूल में बच्चों को बैठने के लिए फर्नीचर, लाइट ,पंखा शौचालय के साथ स्वच्छ पेय जल की व्यवस्था सुनिश्चित कराने के लिए ईमानदार प्रयास किया जाना चाहिए.
यदि देश और राज्य की सरकारें शिक्षा व्यवस्था को सुधारने में रुचि नहीं रखती हैं तो निश्चित रूप से यह बात माना जायेगा कि पूंजीपति वर्ग के स्कूल संचालकों के दबाव में सरकार अपनी शिक्षा प्रणाली को व्यवस्थित करना नही चाहती है और इसी सरकारी निरंकुशता का परिणाम है कि देश प्रदेश में शिक्षा का बाजारीकरण चरम सीमा पर है जहाँ उचित और मूल्यपरक शिक्षा आम आदमी के बच्चों की पहुंच से कोसों दूर है।