क्यों भीड़ के आगे बेबस है प्रशासन? - तहक़ीकात समाचार

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मंगलवार, 30 जुलाई 2019

क्यों भीड़ के आगे बेबस है प्रशासन?

रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार_

उत्तर प्रदेश में 28 साल के सुजीत कुमार को लोगों ने चोर समझ कर मारा पीटा और जला दिया. सुजीत कुमार अपने ससुराल जा रहे थे. कुत्तों ने उनका पीछा किया तो वे एक घर में छिप गए. लोगों ने उन्हें चोर समझ लिया और पेट्रोल डालकर जलाने की कोशिश की. सुजीत को लखनऊ के सिविल अस्पताल में भर्ती किया गया है. बाराबंकी ज़िले की यह घटना है. पीटीआई न्यूज़ एजेंसी की यह ख़बर है. चार लोगों को गिरफ्तार किया गया है. बिहार में भी मॉब लिंचिंग की एक घटना हुई है. चोरी के आरोप में पकड़े गए तीन लोगों को घेर कर लोगों ने मार दिया. घटना सारण ज़िले के बनियापुर गांव की है. इन घटनाओं के संदर्भ में आप स्टेट और सोसायटी को समझिए. लगता ही नहीं है कि समाज और राज्य के बीच गहरा रिश्ता बना है. बस गुस्सा आना चाहिए, लोग खुद ही राज्य बन जाते हैं, त्वरित इंसाफ पर उतारू हो जाते हैं. किसी पर पेट्रोल डाल कर जला देने का ख्याल कहां से आ रहा है, किसी को मारते मारते मार देने की सनक कैसे पैदा हो रही है, समझने की ज़रूरत है.


पिठौरी नंदलाल टोला में तीन युवकों को मवेशी चुराने के आरोप में ग्रामीणों ने पकड़ लिया. कायदे से उन्हें पुलिस के हवाले कर देना था लेकिन लोगों ने पीट पीट मार डाला. दो की मौत तो धटना स्थल पर ही हो गई. तीसरा अस्पताल में दम तोड़ गया. सोचिए मारते वक्त लोगों के सर पर कितना ख़ून सवार हो गया होगा. सनक की हद तक चले गए होंगे. किसी को रुकने का ख्याल नहीं आया कि यहां से मामला बिगड़ जाएगा. ऐसा लगता है कि गांव वाले मार देने के लिए ही मार रहे थे. गांव वालों का कहना है कि तीन लोग पिक अप गाड़ीलेकर गांव में घुसे. पहले तीन बकरियों को पिक अप वैन पर चढ़ाया. बुधु राम के घर से चार बकरियों की चोरी हुई. उसके बाद आरोपी भैंस खोलने लगे. तभी घर वाले जाग गए और शोर मचाना शुरू कर दिया. लोगों की भीड़ आते देख युवक भागने लगे लेकिन उनकी पकड़ में आ गए. नौशाद, राजीव और सुरेश नट को मार दिया गया. तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया है. पुलिस ने गांव में कैंप डाला हुआ है. वैसे किसी आला अधिकारी ने इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.

मई में महेश यादव को मवेशी चोरी के आरोप में भीड़ ने मार डाला था. अररिया ज़िले की घटना है. पिछले साल देश भर में बच्चा चोरी के आरोप में कई लोगों को भीड़ ने शक के आधार पर पकड़ कर मार दिया. झारखंड में तबरेज़ की हत्या इसी तरह की सनक के कारण हो गई. सारण की घटना मवेशी चोरी से संबंधित है. इसमें सांप्रदायिक एंगल नहीं है फिर भी भीड़ है. भीड़ तो अस्पताल में भी घुस कर डाक्टरों को मारने लग जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने पूरी व्यवस्था दी है कि भीड़ की हिंसा के मामले में किस तरह से जांच होगी, किसकी जवाबदेही होगी. इसी के साथ यह भी कहा है कि केंद्र और राज्य सरकार इस हिंसा को लेकर जागरूक करे. प्रचार प्रसार के ज़रिए लोगों को बताए कि ऐसा करना ठीक नहीं है. सुप्रीम कोर्ट सिर्फ इसी बात की स्टेटस रिपोर्ट मंगा ले कि भीड़ की हिंसा को लेकर जागरूक करने के लिए प्रचार प्रसार के कौन से तरीके अपनाए गए. फिर जब आप सुबह सुबह इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पढ़ते हैं कि 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे के 41 मामलों में से 40 में आरोपी बरी हो गए हैं. दंगों के ये मामले भीड़ कि हिंसा से ही संबंधित थी. 65 साल के इस्लाम को लोगों ने दौड़ा कर मार दिया. इस्लाम के रिश्तेदार और पांचों गवाह मुकर गए. पुलिस सबूत से लेकर गवाह तक पेश नहीं कर पाई.


2013 के दंगे में 65 लोग मारे गए थे. इससे संबंधित हत्या के 10 मामले दर्ज हुए थे. अगर इस तरह भीड़ सबूतों के अभाव में छूटती रहेगी तो उसका हौसला बढ़ता रहेगा. बल्कि यही नया राजनीतिक औजार भी बन चुका है. सबको पता है कि बाद में सब कुछ मैनेज हो जाता है. कारण जो भी हों, भीड़ बच जाती है. इंडियन एक्सप्रेस ने कोर्ट के रिकार्ड और गवाहों का गहन अध्ययन किया है. यह रिपोर्ट बता रही है कि अंत में भीड़ बच जाती है. एक परिवार को जला दिया गया. तीन दोस्तों को खींच कर खेत में मार दिया गया. एक पिता की तलवार से हत्या कर दी गई. इन मामलों में 53 आरोपी बरी हो गए. तो फिर इनकी हत्या करने वाले कहां गए. यही नहीं गैंग रेप के चार और दंगों के 26 मामलों में भी यही ट्रेंड देखने को मिला है. आप यह ख़बर ज़रूर पढ़ें. हिन्दी के अखबारों में ऐसी खबरें नहीं होती हैं. इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि यूपी सरकार बरी हुए आरोपियों के मामले में ऊंची अदालत में अपील भी नहीं करेगी. भीड़ अपने आप में कोर्ट बन चुकी है. ऐसा लगता है कि लोगों के बीच कानून व्यवस्था नहीं बची है. वे किसी भी बात पर लाठी तलवार निकाल कर हमला बोल सकते हैं. यह हिंसा किसी एक या दो की जान नहीं लेती बल्कि स्टेट, संविधान और सिस्टम की समझ को भी चुनौती दे रही है.

भोपाल में बीजेपी के पूर्व विधायक सुरेंद्र नाथ सिंह मम्मा को गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्‍होंने प्रदर्शन के दौरान कह दिया कि मुख्यमंत्री कमलनाथ का भी खून बहेगा. बाद में उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. सुरेंद्र नाथ सिंह मम्मा की भाषा में जो हिंसा है वो वहां मौजूद सैकड़ों लोगों में भी स्वीकृत है. खून की बात करना, खून बहा देना बोला जा सकता है. सुरेंद्र नाथ सिंह मम्मा यह भी भूल गए कि आकाश विजयवर्गीय के मामले में प्रधानमंत्री ने कहा था कि यह सब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. हालांकि अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, कार्रवाई तो प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ भी नहीं हुई लेकिन आए दिन इक्का दुक्का की तरह ये जो घटनाएं हो रही हैं, बयान आ रहे हैं लगता है कि यही हमारे समय की भाषा और समझ बन कर रह गई है. मामला यही था कि भोपाल में नगर निगम शहर के अलग-अलग इलाकों में बनी अवैध गुमटियों को हटा रहा था. सुरेंद्र नाथ सिंह इन्हीं गुमटी वालों के साथ विधानसभा का घेराव करने गए थे. बीजेपी के नेताओ का भी कहना है कि ऐसी भाषा ठीक नहीं है.

भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि भारत शरणार्थियों की राजधानी नहीं बन सकता है. सुप्रीम कोर्ट में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) को लेकर सुनवाई चल रही थी. केंद्र सरकार और असम सरकार मांग कर रही है कि एनआरसी की अंतिम सूची बनाने की डेडलाईन 31 जुलाई से बढ़ा दी जाए. दोनों की मांग है कि 20 प्रतिशत एनआरसी की समीक्षा होनी चाहिए क्योंकि लाखों लोगों के ऐसे सर्टिफिकेट बन गए हैं जो हकदार नहीं थे. सरकार ने कहा कि एनआरसी कोर्डिनेटर ने अच्छा काम किया है लेकिन हम लाखों लोगों के मामले में काम कर रहे हैं. बांग्लादेश के बार्डर के पास लाखों लोग ग़लत तरीके से एनआरसी में नाम आ गए हैं. जिन लोगों के नाम जुड़े वे अवैध घुसपैठिये हैं. बॉर्डर इलाके में गहन सर्वेक्षण की ज़रूरत है. स्थानीय लोगों के साथ मिलकर उन्होंने गड़बड़ी की है. इसलिए कोर्ट से सरकार ने अपील की है कि अंतिम सूची जारी करने की तारीख 31 जुलाई से बढ़ा दी जाए. एनआरसी के कोर्डिनेटर प्रतीक हैजला ने कहा है कि 36 लाख लोगों के दावों को वेरिफाई किया गया है. उनके परिवार के लोगों को भी वेरिफाई किया गया है.

हैजला ने भी कहा कि अभी कई दावे लंबित है इसलिए समय चाहिए. 31 अगस्त तक डेडलाइन बढ़ा दी जाए. हमने बाढ़ के सिलसिले में बताया है कि असम में कई लोग एनआरसी के कारण जान जोखिम में डाल रहे हैं. बाढ़ में उनके लिए जान से ज्यादा चिन्ता इस सर्टिफिकेट को बचाना हो गया है. कोर्ट ने इस काम पर बाढ़ के असर का भी हाल पूछा तो जवाब में प्रतीक हैजला ने कहा कि ट्रक के ट्रक कागज़ात सुरक्षित जगह पर पहुंचाए गए हैं.

रिफ्यूज़ी के बारे में दुनिया के कई देशों में राजनीति बदल रही है. जर्मनी जैसे देश जहां शरणार्थियों को जगह दे रहे हैं तो रूस चेतावनी दे रहा है कि यह ठीक नहीं है. अमरीका में रोज़ इस मसले को लेकर राजनीतिक टकराव होता रहता है. वसुधैव कुटुंबकम सारी दुनिया परिवार है तो फिर परिवार के लिए सारी दुनिया क्यों नहीं है. कहीं लोग जान बचाने के लिए भाग रहे हैं तो कहीं ग़रीबी और प्रकृति की तबाही के कारण. एक बार आप शरणार्थी और रिफ्यूजी का मतलब भी समझिए. आज शहरों में रहने वाले कई लोग भी खुद को इस तरह से देख सकते हैं. अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप और उनसे मिलने गईं याज़िदी एक्टिविस्ट नादिया मुराद की बातचीत का वीडियो देखा जा रहा है. आप नादिया की बातों के भाव को समझिए. वो किन हालात में इराक़ से भागी थी. वो जिस याज़िदी समुदाय की है उसकी हज़ारों औरतों और बच्चों पर आईएसआईएस कहर बनकर टूटा था. मार दी गईं थीं. नादिया बच कर निकल भागी और उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला. राष्ट्रपति ट्रंप की प्रतिक्रिया से ज़्यादा आप नादिया की बातों पर ध्यान दें. चेहरे पर भाव को समझें. आपको रिफ्यूज़ी होने के और भी पहलू समझ आएंगे.

नादिया की मां और बहनों को आईसीस ने मार दिया था. 3000 याज़िदी अभी भी लापता बताए जाते हैं. भारत के लाखों लोग दुनिया भर के देशों में रह रहे हैं. वे भी खुद को कभी न कभी रिफ्यूज़ी समझते होंगे. इसलिए रिफ्यूजी को लेकर एक तरह की समझ नहीं बनानी चाहिए कि कोई बोझ ही है. उस पर क्या बोझ है, यह भी समझिए. दुनिया अलग तरह से दिखेगी.

शुक्रवार को लोकसभा में RTI Amendment Act 2019 प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने पेश किया. इसमें सूचना आयुक्तों के संबंध में तीन बातें हैं. पहले 5 साल के लिए मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति होती थी. अब उनका कार्यकाल 5 साल होगा या कितना होगा इसका फैसला सेंटर करेगा. केंद्र राज्यों के लिए भी यह तय करेगा. पहले मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की सेवा की शर्तें चुनाव आयुक्तों के समान होती थीं. अब शर्तें बदली जाएंगी. सरकार ने इस बिल में मकसद यह बताया है कि चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है और सूचना आयोग कानूनी संस्था है. दोनों में अंतर होता है. इसे लेकर विपक्ष के सदस्यों ने आरोप लगाया कि सरकार सूचना आयोग के आयुक्तों को कमज़ोर करना चाहती है. सूचना अधिकार कार्यकर्ता इस बिल को लेकर आशंकित हैं. उनके कुछ सवाल हैं. उनका कहना है कि यह संशोधन विधेयक सूचना आयुक्त की स्वायत्ता को कमज़ोर करने के लिए लाया गया है.

आज लोकसभा में मानवाधिकार संरक्षण संशोधन बिल पास हो गया. इस संशोधन के बाद राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार संस्थाओं के चेयरमैन का कार्यकाल 5 साल से घटा कर तीन साल कर दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस के अलावा चीफ जस्टिस भी आयोग के अध्यक्ष बन सकेंगे. राज्यों में हाईकोर्ट के पूर्व जज को यह मौका मिलेगा. इसी बहस में हिस्सा लेते हुए पूर्व मंत्री और मौजूदा बीजेपी सांसद सतपाल सिंह ने एक बार फिर कहा कि इंसानों की विकास यात्रा बंदरों से शुरू नहीं हुई है. हम ऋषियों की संतान हैं. उन्होंने यह भी कहा कि भारत की परंपरा में मानव अधिकार पर ज़ोर नहीं था. संस्कार पर ज़ोर था.

सत्‍यपाल सिंह ने कहा, 'हम ऋषियों की संतान हैं. जो लोग कहते हैं कि हम बंदरों की संतान हैं उनकी भावना को ठेस पहुंचाना नहीं चाहता. जो लोग मानते हैं, मैं यह मानते हैं कि हम ऋषियों की संतान हैं. मैं केवल कहना चाहता हूं कि हमारी संस्कति परंपरा मानव मनुष्य निर्माण पर ज़ोर दिया गया है. मानव अधिकारों पर नहीं, संस्कारौं के बल पर. एक मनुष्य का निर्माण पर ज़ोर दिया गया है. हम सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें. इसलिए हमारे यहां कभी भी मानव अधिकार की बात नहीं की गई. केवल कर्तव्य की बात की है. ये जो संकल्पना है ये पश्चिमी है. बांट कर खाना सीखे. त्याग करें. ऐसे मानव अधिकारी सीखाने की. हमने सोचा कि मानव ही सृष्टि के अंदर ट्रस्टी है. हज़ारों लाखों का कत्ल करने वाले देशों पर कब्जा करने वाले ही मानव अधिकार की बात करने लगे. अमरीका का इतिहास देखिए. न्यूज़ीलैंड का इतिहास देखिए. धर्म के नाम पर मारा है. वही मानव अधिकार की बात करते हैं. हम अधिकार लेकर क्या करेंगे.'

विज्ञान में एवोल्यूशन की एक प्रक्रिया बताई गई है. डार्विन ने अपनी संकल्पना 1859 में दी थी. माना जाता है कि 40 लाख साल पहले इंसान का उदगम ऑस्ट्रेलोपिथेकस से हुआ. उसके बाद अलग-अलग चरणों में इंसान का विकास होता है. उन सभी चरणों के अलग-अलग नाम हैं. डार्विन ने बेशक इसे विस्तार से बताया था लेकिन इतना भी सरल तरीके से इंसान का उदभव नहीं हुआ था. बाद के वैज्ञानिक शोध में डार्विन की बात मानी गई लेकिन मानव विकास यात्रा की कई जटिल परतें सामने आईं. डार्विन के समय में भी और अभी कई धर्मों के मठ इन सारी बातों को नहीं मानते हैं. थ्‍योरी ऑफ इवोल्यूशन वैज्ञानिक रूप से एक स्थापित सिद्धांत है. सत्यपाल जी का थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन अलग है. आईआईटी और इसरो के वैज्ञानिकों को सत्यपाल सिंह की बात पर राय देनी चाहिए.

जनवरी 2018 में भी सत्यपाल सिंह ने डार्विन को चुनौती दी थी. उस समय वे मानव संसाधन राज्य मंत्री थे. इस बयान के बाद उनके कैबिनेट मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बयान दिया था कि इस तरह के बयान नहीं देनी चाहिए. लेकिन सत्यपाल सिंह ने सात महीने बाद एक किताब के लॉन्‍च  में फिर ये बयान दे दिया. उन्होंने कहा था कि जनवरी का बयान लतीफा नहीं था. मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं. मैं विज्ञान समझता हूं. डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से ग़लत हैं. मैं खुद को बंदर की संतान नहीं मानता हूं. किसी ने बंदर को इंसान बनते नहीं देखा है. एक जीवन में कोई यह कैसे देख सकता है. सत्‍यपाल जी रसायन शास्त्र के छात्र रहे हैं. लेकिन उनकी पीएचडी लोकप्रशासन में है. उस समय यह बयान अंतरराष्ट्रीय अखबारों में भी छपा था. भारत में सार्वजनिक रूप से डार्विन के सिद्धांत को चुनौती सत्‍यपाल जी ने ही दी है.

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